मंगलवार, 15 सितंबर 2015

भाजपा और हम-दोनों की मजबूरी थी मेल-मिलाप


बिहार में सीटों के बंटवारे पर दलों और नेताओं के रूठने-मनाने और भेंट-मुलाकात के लंबे दौर के बाद सहमति भले ही बन गई हो और भाजपा प्रमुख अमित शाह एवं हम के अध्यक्ष जीतन राम मांझी समेत सभी एनडीए नेता एकजुटता के दावे करते दिख रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि यह मेल-मिलाप दोनों दलों की मजबूरी ही थी। हम के लिए एनडीए में बने रहना फायदे का सौदा है तो भाजपा को नीतीश की काट के लिए उनके पूर्व सहयोगी से अच्छा कोई मिल नहीं सकता था। मांझी के बहाने भाजपा नीतीश कुमार पर दलित के अपमान का आरोप लगाती रही है। फिर, मांझी के साथ दलित-महादलित वोट और संवेदना तो है ही, अगड़ी जातियों में जनाधार वाली भाजपा के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नाता तोडऩे और अपनी पार्टी के गठन के बाद से ही मांझी एक-एक कर सारे समीकरणों को टटोलते रहे हैं। भाजपा के कुनबे में आने से पहले मांझी किसी मंजे खिलाड़ी की तरह अपने सारे घरों के दुरुस्त करते हुए बीच-बीच में बयानों और मुलाकातों से साथ एवं सहयोग की संभावनाएं तलाशते रहे। पहले अकेले चुनाव लडऩे की बात कहने वाले मांझी कभी पप्पू यादव से मुलाकात कर तो कभी सीएम पद के लिए खुद को प्रत्याशी बताकर अपने पक्ष में हवा बनाते रहे। हालांकि, राज्य में दलित चेहरे के सवाल पर लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के साथ उनकी कड़वाहट भी रही। मांझी जानते हैं कि उनकी पार्टी अपने सारे घोड़े खोल भी दे तो जीतना तो दूर, राज्य की सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी खड़े नहीं कर सकती। ऐसे में उनकी प्रमुख शक्ति महादलित होना ही है और इसी आधार पर वह मैदान के एक छोटे हिस्से पर कब्जा कर सत्ता में हिस्सेदारी कर पाएंगे। भाजपा के साथ सीटों पर पेंच फंसने पर मांझी ने आखिरी दांव चलते हुए राजद प्रमुख लालू प्रसाद को अपने खेमे में करने की भी नाकाम कोशिश कर ली। बीते दिनों लालू के साथ महाचंद्र प्रसाद सिंह की मुलाकात ने कई अटकलों की तो जन्म दिया लेकिन परिणाम, उम्मीद के अनुसार, शून्य ही रहा। भाजपा विरोधी महागठबंधन से सपा के छिटकने के बाद भी इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि लालू, नीतीश को छोड़ मांझी का हाथ थामेंगे।
मांझी को लेकर एनडीए के भीतर करीब सप्ताह भर स्थिति भले ही डंवाडोल होती रही, लेकिन यह भी सबको मालूम था कि भाजपा उन्हें अलग करने का जोखिम नहीं उठाएगी। जदयू के सहयोगी के तौर पर सरकार बनाने वाली भाजपा के लिए यह चुनाव अपने बूते कुछ कर गुजरने का बड़ा मौका है और वह ऐसा कुछ नहीं करेगी जिससे गलत संदेश जाने का अंदेशा हो। मांझी को अलग कर भाजपा पर दलित-महादलित विरोधी कहलाने या उनके वोट खिसकने का रिस्क नहीं ले सकती। सीएम की कुर्सी छोडऩे के बाद से बात-बात पर दलित नेता होने की बात कहने वाले मांझी अलग होने के बाद भाजपा के लिए चुनाव में परेशानी खड़ी कर सकते थे। दूसरा, सीएम आवास खाली करने से लेकर आम-लीची तक पर नीतीश के साथ रार लेने वाले मांझी को नीतीश की काट के रूप में देखा जा रहा है और भाजपा चाहती है कि महादलितों की इस टीस का लाभ वह वोट के रूप में हासिल कर सके। मांझी राज्य में महादलित या निचले पायदान की मुसहर जाति से हैं। राज्य की 16 प्रतिशत दलित-महादलित जातियों में इनकी आबादी करीब 15 फीसदी है और किसी भी राजनीतिक मोर्चे की संभावनाएं उभारने या गिराने का दमखम रखती हैं। अगर दलित जातियां एक साथ वोट करने का मन बना लेती हैं तो ये बिहार में मजबूत वोट बैंक में तब्दील हो जाती हैं। मांझी राज्य में महादलित वोटों को एकजुट करने की यही क्षमता रखते हैं। इस बार कड़ी टक्कर वाले दो ध्रुवीय चुनावों में जदयू-राजद-कांग्रेस महागठबंधन को यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटों में बड़ी हिस्सेदारी मिलने की उम्मीद है। वहीं, भाजपा की अगुआई वाले एनडीए को ऊंची जातियों (ब्राह्मण-राजपूत), वैश्य-व्यापारी के वोट बड़े पैमाने पर मिलने भरोसा है। मांझी के नाम पर अगर पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित-महादलित वोट भाजपा को मिलते हैं तो भाजपा के लिए सत्ता का सपना देखना आसान होगा।

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

हमराही अब हमलावर

बिहार विधानसभा चुनाव का एलान होने के साथ ही राज्य में चुनावी पारा चढ़ गया है। बिसात बिछ गई है लेकिन ‘एड फ्रैंड’ और ‘अनफ्रैंड’ (सोशल मीडिया में दोस्त बनाने या दोस्ती तोडऩे के लिए इस्तेमाल शब्द) के दौर ने तस्वीर पूरी तरह बदल दी है। दलों
राजद अध्यक्ष लालू यादव के कार्यकाल में तीसरे-चौथे स्थान पर रहने वाली भाजपा इस बार बड़ी भूमिका में नजर आ रही है। पार्टी ने लोकसभा चुनाव के सहयोगियों-रामविलास पासवान की लोजपा और रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा पर भरोसा तो किया ही है, विरोधी दलों के बागियों के रूप में नए दोस्त भी तलाशे हैं। कभी लालू यादव का दाहिना हाथ कहे जाने वाले पप्पू यादव ने अपनी अलग पार्टी बना ली है और उनका साथ भाजपा को है। नीतीश कुमार के विश्वासपात्र पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी राजग के साथ हैं। ऐसे में राजग को अगड़ी जातियों के अलावा यादवों के 14.4 प्रतिशत और दलित-महादलितों के 10-4.5 प्रतिशत वोटबैंक में सेंध की उम्मीद है। पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे और अमित शाह की संगठन क्षमता को भुनाने में पीछे नहीं रहने वाली। पीएम जिस रफ्तार से बिहार में रैलियां कर रहे हैं और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में अपने शब्दवाणों से विरोधियों को पस्त कर रहे हैं, उससे पिछले चुनाव में 91 सीटें हासिल करने वाली भाजपा को सीटों की संख्या में इजाफे का पूरा भरोसा है। हालांकि, दिल्ली चुनाव के बाद यह मोदी-शाह की जोड़ी का सबसे कठिन टैस्ट भी होने वाला है।
दो चुनावों में भाजपा के साथ लडऩे एवं सरकार बनाकर सीएम बनने वाले नीतीश कुमार की जदयू के लिए इम्तिहान सबसे कठिन है। यह नीतीश के शासन (सुशासन?) का भी एक इम्तिहान तो है ही, धुर विरोधी लालू से गलबहियां डालने के पैंतरे की परीक्षा भी। पिछले चुनाव में लगभग आधी सीटों (115) पर कब्जा जमाने वाली जदयू के लिए पिछले परफॉर्मैंस को दोहराना आसान नहीं होगा। भाजपा के खिलाफ दूसरे दलों के महागठबंधन की हवा भी सपा प्रमुख मुलायम ङ्क्षसह यादव निकाल चुके हैं। कुर्मी, कोइरी मतदाताओं के 5 प्रतिशत वोट के साथ उन्हें दलितों और महादलितों पर भरोसा है। पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की जीत के पीछे महिलाओं और निष्पक्ष मतदाताओं, युवाओं के समर्थन बड़ा फैक्टर था। नीतीश इस चुनाव में भी इस वोटबैंक को हथियाने का पूरा प्रयास करेंगे लेकिन बिहार में शराब की दुकानों की बढ़ती संख्या महिलाओं को जदयू से दूर कर सकती है। गठबंधन को बड़ी उम्मीद माई (एम-वाई) समीकरण से है। यही वजह है कि कभी एक-दूसरे को फूटी आंखों न सुहाने वाले लालू-नीतीश बड़े-छोटे भाई बने घूम रहे हैं। हालांकि, जीतन राम मांझी दलित वोटों का बड़ा हिस्सा काटकर नीतीश की आशाओं को धराशायी कर सकते हैं। जीत-हार की तस्वीर तो 8 नवम्बर को ही साफ होगी लेकिन यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि लालू की पार्टी राजद फायदे में रहने वाली है। पिछले चुनाव में केवल 22 सीटों पर सिमट आई कभी दो दशकों तक शासन करने वाली पार्टी के पास खोने को कुछ खास है भी नहीं। और यादवों का जनाधार तो है ही। 
नवोदय टाइम्स के 10 सितम्बर के अंक में प्रकाशित।
के लिए इस बार की लड़ाई पिछली बार से बिल्कुल अलग होगी। पहले जो सहयोगी थे, अब प्रतियोगी बने ताल ठोक रहे हैं। हमराही अब हमलावर हैं। चुनावी गीतों ने राज्य में हर संगीत को फीका कर रखा है तो पोस्टर वार का नया रूप भी यहां देखने को मिल रहा है। गांवों की चौपालों से लेकर शहर के चौराहों तक सिर्फ चुनावी माहौल दिखाई दे रहा है। आने वाले दिनों में यह लड़ाई और दिलचस्प होने वाली है।

बयानबाजी और बगावत
दोस्ती-दुश्मनी का यह खेल आखिरी नहीं है। भाजपा विरोधी महागठबंधन ने सीटों का एलान क्या किया, आपसी फूट उभरकर सामने आ गई। सपा प्रमुख ने गठबंधन की गांठ खोलते हुए सभी सीटों पर अलग से चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी। पहली बार मुलायम ने नीतीश के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल दिया हैै। इधर लालू यादव पर परिवारवाद का आरोप लगाते हुए विरोधी हमला कर रहे हैं तो जवाब देने खुद लालू के बेटे तेजस्वी को सामने आना पड़ा। महागठबंधन में अब नीतीश के खिलाफ बयान देकर लालू के सांसद तस्लीमुद्दीन ने भी मोर्चा खोल दिया है। अंदरूनी कलह से राजग भी अछूता नहीं। घटक के दो प्रमुख सहयोगी मांझी और पासवान दलित नेता के मुद्दे पर आमने-सामने हैं। इनकी सीटों की मांग भी भाजपा को परेशान कर सकती है।

शनिवार, 18 जुलाई 2015

सियासत की तस्वीर बन चमक खो रही मेट्रो


आरामदायक सफर और चाक-चौबंद व्यवस्था के लिए मशहूर दिल्ली मेट्रो आजकल अपनी अव्यवस्थाओं के चलते सुर्खियों में ज्यादा आ रही है। सटीक टाइमिंग, साफ-सुथरे स्टेशन व कोच तथा यात्रियों की सहयता के लिए तत्परता अब इंतजार, ऊब और अनिश्चितता में बदलती जा रही है।

दिल्ली के बाद मेट्रो का एनसीआर के शहरों में विस्तार तो हुआ है, लेकिन सुविधाओं में कमी आई है। सबसे खराब हालत ब्लू लाइन की है। आए दिन इस रूट पर किसी न किसी तकनीकी खराबी के चलते मेट्रो पर ब्रेक लगती रही है। 5-10 मिनट की देर तो आम बात हो गई है। एक-दो मौके तो ऐसे आए कि लोगों को आपातकालीन द्वार खोलकर बाहर आना पड़ा। पहले जहां मेट्रो परिसर में गंदगी ढंूढे नहीं मिलती थी, अब कोचों में भी पानी की खाली बोतलें और बिस्कुट-चिप्स के रैपर दिख जाते हैं। मेट्रो यात्रियों की आम धारण है कि श्रीधरन के कार्यकाल तक सबकुछ फिट एंड फाइन था। उनके हटते ही दिक्कतें शुरू हो गईं।

हालांकि, मेट्रो के मैलेपन की कुछ और वजहें हैं। दिल्ली की सरकार हो या पड़ोसी राज्य हरियाणा और उत्तर प्रदेश की, अपने विकास कार्यों की चमचमाती तस्वीर पेश करने के लिए नेता पहली घोषणा मेट्रो को लेकर करते रहे हैं। हालत यह है कि मेट्रो विस्तार का तीसरा प्लान पूरा भी नहीं हुआ है और चौथा तैयार हो चुका है। जाहिर है कि जल्दबाजी मेट्रो को नहीं सियासतदानों को है। मेट्रो रूट की घोषणा से प्रापर्टी की कीमतों में उछाल का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से किसे फायदा होता है-बताने की बात नहीं।

मेट्रो के बदरंग होते जाने के लिए यात्री भी कम जिम्मेदार नहीं है। मेट्रो में खाने-पीने, गंदगी फैलाने और फोटो खींचने पर रोक है, लेकिन ऐसा करते अक्सर लोगों को देखा जा सकता है। कार्रवाई का डर न हो तो नियम नहीं मानेंगे- इस मानसिकता से दिल्लीवालों को मुक्ति पानी होगी। मेट्रो हम सबके लिए है और यह साफ-सुथरी रहे इसकी जिम्मेदारी भी सबकी है।


नवोदय टाइम्स के 18 जुलाई के अंक में प्रकाशित।

‘शत्रु राग’ में खो न जाएं भाजपा के सुर


मुख्यमंत्री पद और सीटों की खींचतान के चलते बिहार में भाजपा का ‘मिशन 185’ मुश्किल में पड़ सकता है। पटना में वीरवार को परिवर्तन रथ को झंडी दिखाने के लिए आयोजित कार्यक्रम में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ घटक दलों के प्रमुखों को भी मंच पर जगह दी गई थी। संदेश था राजग की एकजुटता का, लेकिन इस संदेश पर संदेह पैदा कर रही थी बिहार के कुछ नेताओं खासकर शत्रुघ्न सिन्हा की अनुपस्थिति।

प्रधानमंत्री के दौरे से पहले बिहार में यह भाजपा का सबसे बड़ा कार्यक्रम था। शाह ने बड़े पैमान पर चुनाव प्रचार अभियान की औपचारिक शुरुआत की, लेकिन बारिश में जमे समर्थकों की निगाहें ‘बिहारी बाबू’ शत्रुघ्न सिन्हा को ढंूढती रही। अपने बागी तेवरों को लेकर सिन्हा आए दिन भाजपा नेतृत्व के लिए मुसीबत खड़ी करते रहे हैं। सिन्हा ने गांधी मैदान न आने का कारण साफ नहीं बताया, बल्कि अपने अंदाज में एक शेर का अंश जरूर कह दिया-‘वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमां।’ अगर इस शेर की अगली पंक्ति-‘हम अभी से क्या बताएं, क्या हमारे दिल में है’- को याद करें तो शत्रु भइया की मंशा समझी जा सकती है।
यह पहली बार नहीं है कि शत्रुघ्न सिन्हा ने पार्टी नेतृत्व के माथे पर बल ला दिए हों। हाल ही में लालू के जन्मदिन पर उन्हें शुभकामना देने उनके आवास पहुंच शत्रुघ्न ने सियासत में कई सवाल खड़े कर दिए थे। विधानपरिषद चुनाव में भाजपा की जीत के जश्न को वह न इतराने की नसीहत देकर फीका कर चुके हैं। परिवर्तन रथों पर अपनी तस्वीर न होने के लिए भी वह साफ शब्दों में नाराजगी जता चुके हैं।

भाजपा नेतृत्व ने साफ कर दिया है कि बिहार में सीएम पद के नेता की घोषणा चुनाव से पहले नहीं की जाएगी। शायद शीर्ष नेतृत्व भी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से वाकिफ है और चुनाव से पहले किसी दरार को उभरने से रोकने के लिए ही ऐसा फैसला किया गया है। दिल्ली में चुनाव से ऐन पहले किरण बेदी को सीएम प्रत्याशी घोषित करने का परिणाम भाजपा पहले ही देख चुकी है। शत्रुघ्न सिन्हा सीएम पद की घोषणा की मांग कई बार कर चुके हैं। आमतौर पर पटना आते-जाते रहने वाले सिन्हा काफी दिनों से वहां जमे हैं। वह लगातार स्थानीय नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं। पिछले दिनों वह राज्यसभा सांसद आरके सिन्हा से मिलने उनके आवास पर गए। माना जा रहा है कि वह कायस्थ नेताओं को एकजुट करने की मुहिम में जुटे हैं। अगर सिन्हा अपने को कायस्थ नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने में सफल रहे तो उनका पलड़ा भारी हो सकता है। बिहार में इस बार जब वोटों की लड़ाई दशमलव प्रतिशत तक पहुंच गई है तब कायस्थों के 1.5 प्रतिशत मत के साथ सिन्हा अपनी मंशा को लेकर मैदान में उतर सकते हैं। 
प्रदेश में भाजपा के दूसरे बड़े नेता सीपी ठाकुर भी ऐसी मांग कर चुके हैं। सिन्हा से एक कदम आगे बढ़ते हुए ठाकुर मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जता चुके हैं। पार्टी में अलग-अलग नेताओं के लिए भी दबे छिपे आवाजें उठती रही हैं। 
नवोदय टाइम्स के 18 जुलाई के अंक में प्रकाशित खबर।

बुधवार, 15 जुलाई 2015

निहितार्थ नीतीश-केजरीवाल मुलाकात के


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली आए तो थे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की इफ्तार की दावत में शरीक होने, लेकिन सियासी गलियारों में सुर्खियों में रहा उनका दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल से मिलना। नीतीश कुमार की राजनीति के अंदाज से वाकिफ लोग जानते हैं कि उनका कोई कदम अनायास नहीं होता। और न ही वह दिल्ली आने या मौके-बेमौके राजनीतिक मेल-मिलाप को पसंद करते हैं।
बिहार में दो-ढाई महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे केजरीवाल-नीतीश मुलाकात को लेकर भी अटकलों का बाजार गर्म है।
सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी से एक दिन पहले ही केजरीवाल ने भी दावत दी थी, लेकिन नीतीश उसमें शरीक नहीं थे। नीतीश जानते थे कि इफ्तार दावत में शिरकत उतनी अहमियत नहीं बटोर पाएगा जितनी ‘औपचारिक’ मुलाकात। सोनिया की पार्टी में शामिल होना नीतीश के लिए ज्यादा जरूरी था। वह भी तब जब कई वर्षों से इस मौके पर मौजूद रहने वाले कार्यक्रम से दूर ही रहने वाले थे। सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में हर साल मौजूद रहने और मीडिया अटेंशन पाने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और वामदलों के नेता इस बार आयोजन से दूरी ही बनाए रहे। तमाम अटकलों के बाद भी तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने भी दूरी ही रखी। हालांकि, उनके प्रतिनिधि के रूप में डेरेक ओ-ब्रायन भोज में पहुंचे और उन्हें जगह भी सोनिया के साथ ही मिली।
बिहार में कभी धुर विरोधी रहे लालू और नीतीश की पार्टी इस बार साथ चुनाव लडऩे वाली है। दोनों नेता भी यदाकदा एकजुटता का दंभ भरते रहते हैं, लेकिन लोग जानते हैं कि यह साथ कितना कारगर और गहरा है। दलों के विलय के समय ‘बड़ा भाई’ होने को लेकर शुरू हुई खींचतान किसी न किसी तरह बाद में नजर आती रही है। लालू और नीतीश दोनों इस कोशिश में हैं कि चुनाव के बाद उनका पलड़ा भारी हो और गठबंधन व सरकार पर परोक्ष रूप से अधिकार। नीतीश की केजरावाल से मुलाकात को भी इसी चश्मे से देखा जा रहा है। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का बिहार में बड़ा जानाधार भले ही न हो, लेकिन आप के समर्थक कम नहीं हैं। आप ने बिहार के तकरीबन सभी जिलों में अपने दफ्तर खोले हैं। नीतीश की मंशा है कि वह केजरीवाल के सबसे करीबी दोस्त के रूप में नजर आकर आप समर्थकों का विश्वास वोट के रूप में हासिल कर सकें। चाहे एसीबी विवाद हो या पूर्ण राज्य के दर्जे मांग केजरी के साथ खड़े होने वालों में नीतीश का नंबर पहला रहा है। दिल्ली में केजरीवाल को ऐतिहासिक और आशातीत सफलता दिलाने में पूर्वांचलियों खासकर बिहार के लोगों को बड़ा योगदान था। अगर केजरी के गुड गवर्नेंस और ईमानदारी की यही भावना बिहार में भी काम कर गई तो नीतीश के लिए राह आसान हो सकती है।
बिहार में इस बार वोट प्रतिशत नहीं बल्कि प्रतिशत के दशांस की लड़ाई है। नए सियासी समीकरणों ने जातीय समीकरण को उलट-पलट कर दिया है। दलित समुदाय की कुछ जातियों को महादलित का दर्जा देने का श्रेय नीतीश कुमार को जाता है, लेकिन हाल के दिनों में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी इसके बड़े नेता के रूप में उभरे हैं। पासवान और मांझी भाजपा के लिए एक और एक ग्यारह की तरह हैं। सीएम की कुर्सी छोड़ते समय मांझी ने इस बात को बार-बार रेखांकित किया था कि दलित होने के चलते उनका ‘अपमान’ किया जा रहा है। यादवों के एकमात्र मसीहा माने जाने वाले लालू यादव को उन्हीं की पार्टी के बागी पप्पू यादव चुनौती दे रहे हैं। मांझी और नीतीश दोनों ने अपनी अलग पार्टी बना ली है। लालू-नीतीश से महामुकाबले को तैयार भाजपा ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों को धार देना शुरू कर दिया है। भाजपा रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा और लोजपा के रामविलास पासवान के बूते दलित वोटों पर अपनी हिस्सेदारी मजबूत मान रही है। लेकिन यादव और मुसलमान मतों के लिए उनके पास कोई खास चेहरा नहीं है। ‘माई’ वोटों पर तो राजद-जदयू गठबंधन अपना स्वभाविक अधिकार मान रहा था, लेकिन बागी पप्पू और मांझी से खतरा भी कम नहीं। ऐसी परिस्थितियों में बिहार की लड़ाई दलों के लिए जितनी कठिन होने वाली है, वोटरों के लिए उतनी ही रोचक।
हालांकि, केजरीवाल का रवैया अलग रहा है। उन्होंने नीतीश से मित्रता के लिए अपने स्तर पर खास गर्मजोशी अब तक तो नहीं दिखाई है। ऐसे में यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि नीतीश का सुशासन और केजरीवाल की ईमानदारी की मिलीजुली छवि, अलग बनती है तो, बिहार चुनाव में कितना कारगर होगी।

नवोदय टाइम्स में 15 जुलाई के अंक में पहले पेज पर प्रकाशित खबर।

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

भारत की हार के बाद सोशल मीडिया पर टिप्पणियों और चुटकुलों की बाढ़

हार का ठीकरा अनुष्का के सिर



सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा। विश्वकप क्रिकेट के सैमीफाइनल में भारत की हार के बाद सोशल मीडिया का हाल कुछ ऐसा ही था। विश्व कप में भारत का 7 मैचों में शानदार जीत का सफर ऑस्ट्रेलिया से हार के साथ समाप्त हो गया। ‘मौका-मौका’ और ‘ओन्ट गिभ इट बैक’ के जुमलों से उत्साह में भरे फैंस के लिए यह किसी त्रासदी से कम नहीं था। सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की बाढ़ आ गई और निशाने पर रही अनुष्का शर्मा। विराट से शानदार प्रदर्शन की उम्मीद लगाए लोग हार का ठीकरा अनुष्का के सिर फोडऩे लगे।
पहले कहा जा रहा था कि अनुष्का शर्मा वल्र्ड कप के दौरान आस्ट्रेलिया नहीं जाएंगी, लेकिन मैच के दौरान उन्हें दर्शक दीर्घा में देखा गया। शिखर धवन के आउट होने के बाद विराट बैटिंग करने आए तो इस बीच अनुष्का को कई बार टीवी स्क्रीन पर दिखाया गया। महज एक रन पर कोहली के आउट होते ही अनुष्का को लेकर टिप्पणियों का दौर शुरू हो गया। कुछ लोगों ने उन्हें ‘पनौती’ और ‘आपदा’ तक कह डाला। कोहली-अनुष्का को लेकर तरह-तरह के मजाक किए जाने लगे। कहा गया-‘ये है सच्चा प्यार, कोहली के एक रन के लिए अनुष्का ऑस्ट्रेलिया पहुंच गईं।’ अपनी तल्ख भाषा को लेकर चर्चाओं और आलोचनाओं में रहने वाले कमाल आर. खान अनुष्का पर तंज करने में सबसे ज्यादा मुखर रहे। उन्होंने ट्वीट किया -‘विराट कोहली के 1 रन पर आउट होते ही पीएम नरेंद्र मोदी ने अनुष्का को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया है। राष्ट्रपति खुद अनुष्का को यह आवार्ड देंगे।’ कमाल आर. खान ने तो अनुष्का को देशद्रोही तक करार दे दिया और उनकी फिल्मों का बॉयकॉट करने की अपील कर डाली। भारत की हार से वे इतने आहत हुए कि उन्होंने अगले विश्व कप तक क्रिकेट न देखने की कसम खा ली। हालांकि, खान को जानने वाले इनकी कसमों पर मुश्किल से ही एतबार कर पाते हैं। पहले भी उन्होंने घोषणा की थी कि अगर लोकसभा चुनाव में भाजपा जीतती है और मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो वह देश छोडक़र चले जाएंगे। क्रिकेटरों पर अपनी खीज उतारते हुए उन्होंने आईपीएल के फ्लॉप रहने की भविष्यवाणी भी कर दी।
ट्विटर पर वीरवार को विश्व कप ही छाया रहा। विराट के लचर प्रदर्शन और इसके लिए अनुष्का को जिम्मेदार मानने वालों की टिप्पणियों की बाढ़ आ गई। कोहली के पांच मिनट वाले विज्ञापन से जोडक़र कई कमेंट्स किए गए। ‘विराट यहां 5 मिनट के लिए ही आए, थैंक्यू अनुष्का’, ‘क्या पता अनुष्का ने विराट को 5 मिनट के अंदर ही लौटने को कहा हो’, ‘जबसे वो एड बना है, विराट मैं तुम्हें 5 मिनट में देखना चाहती हूं, तबसे विराट 5 मिनट में निकल लेता है...’ जैसे कमेंट्स अलग-अलग हैशटैग के साथ किए जाने लगे।
अनुष्का का समर्थन भी : चुटकुलों और कमेंट्स की भरमार के बीच अनुष्का के समर्थन में भी काफी लोग नजर आए। ‘कोहली’ और ‘अनुष्का’ के नाम से अलग-अलग ट्रेंड्स में लोगों ने अनुष्का को कोहली के खराब प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने का विरोध किया। लोगों ने सवाल किया कि अगर भारत जीत जाता तो क्या आज आलोचना करने वाले लोग अनुष्का को सम्मान देने के लिए आगे आते। उन्होंने कहा कि केवल कोहली ही निशाने पर क्यों, अन्य खिलाडिय़ों ने भी तो कोई कमाल नहीं किया। कुछ लोगों की राय थी कि इस हार को भूलकर अगले विश्व कप पर ध्यान केंद्रित किया जाना बेहतर होगा।
बीसीसीआई का पल्स पोल भी फेल : भले ही टीम इंडिया वल्र्डकप से बाहर हो गई हो लेकिन वल्र्ड कप का उत्साह हमेशा की तरह अपने चरम पर था। ऐसे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) कैसे पीछे रहता। संस्था ने भारत की जीत का आकलन करवाने के लिए अपनी आधिकारिक वैबसाइट पर एक सर्वे तक करा डाला। संभवत: भारत के खेल इतिहास में किसी खेल नियामक संस्था द्वारा कराया गया यह पहला सर्वे है। नाम है पल्स पोल। इस सर्वे में 20 हजार 696 वोट पड़े, जिसमें से 80 प्रतिशत ने कहा कि भारत विजेता होगा, जबकि 20 प्रतिशत ने कहा कि भारत हार जाएगा। हालांकि, अब स्थिति साफ हो गई है और भारत अब वल्र्डकप से बाहर है।
----------------
मैं अपने देश से प्यार करता हूं और इसीलिए मुझे क्रिकेट से नफरत है। क्रिकेट देश के लोगों को अनुत्पादक बना देता है। लोग काम छोडक़र क्रिकेट देखने में लग जाते हैं। -राम गोपाल वर्मा
----------------------------------------------------
ये बेहद अफसोसजनक है कि अगर कोई खिलाड़ी अच्छा नहीं खेलता है तो लोग उसके साथी पर बरसने लगते हैं। भावना में बहिए, पर ऐसा भेदभाव नहीं कीजिए।     -चेतन भगत