बिहार में सीटों के बंटवारे पर दलों और नेताओं के रूठने-मनाने और भेंट-मुलाकात के लंबे दौर के बाद सहमति भले ही बन गई हो और भाजपा प्रमुख अमित शाह एवं हम के अध्यक्ष जीतन राम मांझी समेत सभी एनडीए नेता एकजुटता के दावे करते दिख रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि यह मेल-मिलाप दोनों दलों की मजबूरी ही थी। हम के लिए एनडीए में बने रहना फायदे का सौदा है तो भाजपा को नीतीश की काट के लिए उनके पूर्व सहयोगी से अच्छा कोई मिल नहीं सकता था। मांझी के बहाने भाजपा नीतीश कुमार पर दलित के अपमान का आरोप लगाती रही है। फिर, मांझी के साथ दलित-महादलित वोट और संवेदना तो है ही, अगड़ी जातियों में जनाधार वाली भाजपा के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नाता तोडऩे और अपनी पार्टी के गठन के बाद से ही मांझी एक-एक कर सारे समीकरणों को टटोलते रहे हैं। भाजपा के कुनबे में आने से पहले मांझी किसी मंजे खिलाड़ी की तरह अपने सारे घरों के दुरुस्त करते हुए बीच-बीच में बयानों और मुलाकातों से साथ एवं सहयोग की संभावनाएं तलाशते रहे। पहले अकेले चुनाव लडऩे की बात कहने वाले मांझी कभी पप्पू यादव से मुलाकात कर तो कभी सीएम पद के लिए खुद को प्रत्याशी बताकर अपने पक्ष में हवा बनाते रहे। हालांकि, राज्य में दलित चेहरे के सवाल पर लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के साथ उनकी कड़वाहट भी रही। मांझी जानते हैं कि उनकी पार्टी अपने सारे घोड़े खोल भी दे तो जीतना तो दूर, राज्य की सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी खड़े नहीं कर सकती। ऐसे में उनकी प्रमुख शक्ति महादलित होना ही है और इसी आधार पर वह मैदान के एक छोटे हिस्से पर कब्जा कर सत्ता में हिस्सेदारी कर पाएंगे। भाजपा के साथ सीटों पर पेंच फंसने पर मांझी ने आखिरी दांव चलते हुए राजद प्रमुख लालू प्रसाद को अपने खेमे में करने की भी नाकाम कोशिश कर ली। बीते दिनों लालू के साथ महाचंद्र प्रसाद सिंह की मुलाकात ने कई अटकलों की तो जन्म दिया लेकिन परिणाम, उम्मीद के अनुसार, शून्य ही रहा। भाजपा विरोधी महागठबंधन से सपा के छिटकने के बाद भी इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि लालू, नीतीश को छोड़ मांझी का हाथ थामेंगे।
मांझी को लेकर एनडीए के भीतर करीब सप्ताह भर स्थिति भले ही डंवाडोल होती रही, लेकिन यह भी सबको मालूम था कि भाजपा उन्हें अलग करने का जोखिम नहीं उठाएगी। जदयू के सहयोगी के तौर पर सरकार बनाने वाली भाजपा के लिए यह चुनाव अपने बूते कुछ कर गुजरने का बड़ा मौका है और वह ऐसा कुछ नहीं करेगी जिससे गलत संदेश जाने का अंदेशा हो। मांझी को अलग कर भाजपा पर दलित-महादलित विरोधी कहलाने या उनके वोट खिसकने का रिस्क नहीं ले सकती। सीएम की कुर्सी छोडऩे के बाद से बात-बात पर दलित नेता होने की बात कहने वाले मांझी अलग होने के बाद भाजपा के लिए चुनाव में परेशानी खड़ी कर सकते थे। दूसरा, सीएम आवास खाली करने से लेकर आम-लीची तक पर नीतीश के साथ रार लेने वाले मांझी को नीतीश की काट के रूप में देखा जा रहा है और भाजपा चाहती है कि महादलितों की इस टीस का लाभ वह वोट के रूप में हासिल कर सके। मांझी राज्य में महादलित या निचले पायदान की मुसहर जाति से हैं। राज्य की 16 प्रतिशत दलित-महादलित जातियों में इनकी आबादी करीब 15 फीसदी है और किसी भी राजनीतिक मोर्चे की संभावनाएं उभारने या गिराने का दमखम रखती हैं। अगर दलित जातियां एक साथ वोट करने का मन बना लेती हैं तो ये बिहार में मजबूत वोट बैंक में तब्दील हो जाती हैं। मांझी राज्य में महादलित वोटों को एकजुट करने की यही क्षमता रखते हैं। इस बार कड़ी टक्कर वाले दो ध्रुवीय चुनावों में जदयू-राजद-कांग्रेस महागठबंधन को यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटों में बड़ी हिस्सेदारी मिलने की उम्मीद है। वहीं, भाजपा की अगुआई वाले एनडीए को ऊंची जातियों (ब्राह्मण-राजपूत), वैश्य-व्यापारी के वोट बड़े पैमाने पर मिलने भरोसा है। मांझी के नाम पर अगर पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित-महादलित वोट भाजपा को मिलते हैं तो भाजपा के लिए सत्ता का सपना देखना आसान होगा।


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