सोमवार, 10 नवंबर 2014

लालू-नीतीश की काट पर नजर

नवोदय टाइम्स के 10 नवंबर 2014 के अंक में प्रकाशित खबर।

मोदी कैबिनेट में बिहार के तीन नेताओं को जगह

मोदी मंत्रिमंडल के पहले विस्तार में बिहार के तीन नेताओं को जगह दी गई है। सारण से सांसद और पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री राजीव प्रताप रूडी की केंद्रीय कैबिनेट में यह दूसरी पारी है तो राजद अध्यक्ष लालू यादव के हनुमान माने जाते रहे रामकृपाल यादव को अपनी पार्टी से बगावत और फायरब्रांड नेता गिरिराज सिंह को मोदीभक्ति की ईनाम मिला है। इन नेताओं को कैबिनेट में स्थान दिए जाने के पीछे भाजपा की बिहार को लेकर रणनीति साफ झलक रही है, जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। तीनों नेता तीन अलग-अलग जातियों से संबंध रखते हैं और बिहार जहां जातिवाद की जड़ें काफी गहरी हैं, इसके काफी दूरगामी मायने हैं।
भाजपा से नाता तोडऩे के बाद बिहार में सत्तारूढ़ जदयू ने धुर विरोधी राजद से हाथ मिला लिया है। बिहार के सियासी समर की तैयारी में अब तक अकेले जुटी भाजपा ने कैबिनेट विस्तार के माध्यम से कई निशाने साधने की कोशिश की है। रामकृपाल यादव को मंत्री बनाने के पीछे रणनीति राज्य में प्रभावशाली यादव वोटबैंक में सेंध लगाने की है। बिहार में यादव समुदाय वोटों में 12 फीसदी से अधिक की भागीदारी रखता है। पिछले लोकसभा चुनाव में रामकृपाल ने लालू की बेटी मीसा भारती को मात दी थी। ऐसे में यादव वोटों पर उनकी पकड़ गहरी मानी जा रही है। लालू से विद्रोह और मीसा को पराजित करने का ईनाम उनको मंत्रीपद के रूप में मिला है। रामकृपाल इससे पहले राज्य में भी मंत्री नहीं रहे हैं। पाटलीपुत्र से राजद टिकट नहीं मिलने से खफा रामकृपाल ठीक चुनाव से पहले अपने गुरु लालू से अलग हो गए थे। वह भले ही भाजपा से पहली बार सांसद बने हों लेकिन चुनावी राजनीति में नौसिखिए नहीं हैं। मई 2014 के आम चुनाव के जरिए उन्होंने लोकसभा में चौथी बार प्रवेश किया है। पिछले तीन चुनाव उन्होंने राजद के टिकट पर जीते थे।
लोकसभा चुनाव में लालू की मैदान में अनुपस्थिति में परिवार की मुख्य सेनापति राबड़ी देवी को सारण सीट से परास्त करने वाले राजीव प्रताप रूडी राजपूत जाति से संबंध रखते हैं। भाजपा का परंपरागत वोटबैंक माने जाने वाले मध्यवर्ग और अगड़ी जातियों में राजपूतों का खासा प्रभाव है। वर्ष 2001 में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रूडी को पहली बार वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री बनाया गया था। दो साल बाद उन्हें नागर विमानन मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया। भाजपा के महाराष्ट्र प्रभारी और महासचिव रूडी ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के साथ काम किया है और मंत्रिपरिषद में उन्हें शामिल किया जाना उनकी कड़ी मेहनत का पुरस्कार माना जा रहा है।
अपने तेजतर्रार और कई बार विवादास्पद बयानों के लिए जाने जाने वाले गिरिराज सिंह भूमिहार समुदाय से हैं। मंत्रिपरिषद में अभी तक नुमाइंदगी नहीं मिलने से यह समुदाय निराश महसूस कर रहा था। नवादा से पहली बार सांसद चुने गए गिरिराज मोदी के लंबे समय से वफादार रहे हैं और मोदी के प्रति बैर भाव रखने वाले नीतीश कुमार से टकराव मोल लेते रहे हैं। गिरिराज को मंत्री बनाने के पीछे भाजपा की मंशा राज्य में प्रभावशाली भूमिहार समुदाय को रिझाने की है। केंद्रीय कैबिनेट में भूमिहार जाति से एक मंत्री मनोज सिन्हा पहले से हैं, लेकिन लेकिन वह उत्तर प्रदेश से हैं और बिहार में उनका बहुत कम प्रभाव है।

विवादों से पुराना नाता है गिरिराज काबिहार में पशुपालन मंत्री रहे गिरिराज सिंह अपने विवादास्पद बोलों के कारण चर्चा में रहते आए हैं। इस साल लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने यह कहकर पार्टी के लिए असहज स्थिति पैदा कर दी थी कि मोदी को पसंद नहीं करने वालों को पाकिस्तान चला जाना चाहिए। उस समय मोदी ने गिरिराज को कड़ी फटकार लगाई थी। अपने घर से एक करोड़ रुपए की चोरी के बाद भी वह सुर्खियों में रहे थे। गिरिराज ने प्रदेश की राजनीति के दो बड़े दिग्गज नीतीश और लालू को एक बार शिखंडी तक कह डाला था। सितंबर 2013 में एक सभा को संबोधित करते हुए गिरिराज सिंह 2014 के चुनाव के बारे में कहा था कि अब देखना है कि नीतीश और लालू दोनों में से कौन शिखंडी साबित होता है।

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

हवा में लड़ी जा रही वर्चुअल वल्र्ड की लड़ाई



त्योहारों के मौसम में रिटेल मार्केट का बड़ा हिस्सा कब्जा करने की ई-कॉमर्स कंपनियों की खींचतान अब बड़ी लड़ाई में तब्दील हो रही है। एक-दूसरे को मात देने की होड़ में कंपनियां कई बड़े और आकर्षक ऑफर पेश कर रही हैं। विज्ञापनों के जरिये शह-मात का खेल शुरू हो गया है लेकिन वास्तविकता में उपभोक्ताओं को इन ऑफर्स का लाभ मिलता नहीं दिख रहा है। हैप्पी कस्टमर्स की बजाय शिकायत और आलोचना करने वालों की संख्या अधिक है। इस तरह रिटेल की लड़ाई वर्चुअल वल्र्ड में हवा में ही लड़ी जा रही है।
देश के बड़े शहरों के लोगों की सुबह ई-कॉमर्स कंपनियों की एक चौंकाने वाली लड़ाई से शुरू हुई। एक अखबार के आमने-सामने के पन्नों पर ऑनलाइन रिटेल के दो बड़े खिलाडिय़ों के ऐसे विज्ञापन थे जिन पर यकीन करना आसान न था। एक कंपनी का मोबाइल फोन सिर्फ एक रुपए का था तो दूसरी कंपनी उसका मजाक उड़ा रही थी। एक पेज पर फ्लिपकार्ट अपने ‘बिग बिलियन डे’ को शान से पेश कर रहा था तो सामने के ही पन्ने में स्नैपडील अपने अंदाज में उसे काट रहा था। स्नैपडील की ओर से प्रकाशित किया गया था-‘दूसरों के लिए यह भले ही बड़ा दिन हो लेकिन हमारे लिए रोजाना जैसी बात ही है।’ संदेश साफ था कि स्नैपडील पर खरीदारी करने वाले हमेशा अच्छी बचत करते हैं। फ्लिपकार्ट पिछले 10 दिनों से अपने ‘बिग बिलियन डे’ का प्रचार कर रहा था और प्रतिद्वंद्वी कंपनी स्नैपडील ने पहले से मुकाबले की जोरदार तैयारी कर ली थी। अमेजन ने भी दो दिन पहले से ही अपना सेल ऑफर ‘मिशन टू मार्स वीकेंड’ के नाम से शुरू कर दिया था।

फ्लिपकार्ट की वेबसाइट क्रैश

फ्लिपकार्ट ‘बिग बिलियन डे’ सेल सुबह आठ बजे से शुरू हुई। कंपनी ने 70 कैटेगरी में भारी छूट की पेशकश की थी। स्मार्टफोन और लैपटॉप पर 30 तो फैशन एवं पफ्र्यूम्स पर 50 प्रतिशत छूट दी गई थी। सबसे आकर्षित करने वाला था ‘क्रेजी डील्स’ का सेगमेंट जहां मोबाइल फोन और ब्लैंडर जैसी वस्तुएं 1 रुपए में उपलब्ध थीं। साथ ही सिटी बैंक और स्टैंडर्ड चार्टर्ड क्रेडिट कार्ड से खरीदारी करने वालों को 10 प्रतिशत कैशबैक का ऑफर था। सेल शुरू होने के थोड़े समय बाद ही कंपनी की वेबसाइट क्रैश हो गई। कई लोग अपना ऑर्डर प्लेस करने में नाकाम रहे तो कुछ लोग भुगतान के बाद भी खरीदारी नहीं कर पाए। काफी तादाद ऐसे लोगों की थी जो कार्ट में रखी गई वस्तुओं को बाद में देख ही नहीं पाए। नाराज लोगों ने ट्विटर पर जमकर भड़ास निकाली। कुछ लोगों का कहना था कि खरीदारी के बाद भी उनका ऑर्डर कैंसिल कर दिया गया और वजह बताई गई कि लिमिटेड स्टॉक होने के कारण सभी की मांग पूरी नहीं की जा सकती। कुछ लोगों का दावा था कि बड़ा ऑफर देने से पहले कंपनी ने गुपचुप तरीके से वस्तुओं की कीमतें बढ़ा दीं।

भविष्य की तैयारी

ई-कामर्स कंपनियों की यह लड़ाई भारतीय बाजार के अधिकतम दोहन के लक्ष्य को लेकर भी लड़ी जा रही है। भारतीय खुदरा बाजार में अभी ऑनलाइन व्यापार का हिस्सा केवल एक प्रतिशत है लेकिन आने वाले दिनों में इसके तेजी से विकास का अनुमान लगाया जा रहा है। शहरी मध्यवर्ग का विकास और इंटरनेट की उपलब्धता के साथ ही ऑनलाइन बाजार का विकास भी तेजी से होने की संभावना है। फॉरेस्टर रिसर्च का अनुमान है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ई-कामर्स के सबसे तेज विकास भारत में ही होने वाला है और वर्ष 2012-16 में इसकी दर (सी.ए,जी.आर.) 57 प्रतिशत रहने की संभावना है।

10 घंटे में 600 करोड़

फ्लिपकार्ट के सह-संस्थापक सचिन बंसल तथा बिनी बंसल ने एक संयुक्त बयान में कहा कि हमारी वेबसाइट एक अरब बार देखी गई और हमने 24 घंटे में 10 करोड़ डालर (600 करोड़ रुपए) का माल बेचने का लक्ष्य केवल 10 घंटे में हासिल कर लिया। गुणवत्तापूर्ण उत्पादों एवं आकर्षक पेशकश के साथ हमने देश के ई-कारोबार में इतिहास रचा हैै।

नवोदय टाइम्स के 7 अक्तूबर 2014  के अंक में प्रकाशित खबर।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

बड़े जतन से जुटाए ओबामा के लिए दुर्लभ उपहार

1959 में राजघाट पर पुष्प अर्पित करते मार्टिन लूथर किंग और गीता की वह प्रति जो मोदी ने ओबामा को भेंट की।



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए जो व्यक्तिगत उपहार ले गए हैं उनमें से एक बहुत ही प्रमुख और दुर्लभ है। यह हैं मार्टिन लूथर किंग की 1959 की भारत यात्रा के ऑडियो विजुअल क्लिप्स। मार्टिन लूथर किंग मानवतावादी अमरीकी पादरी और अफ्रीकी-अमरीकी नागरिक अधिकार आंदोलन की प्रमुख हस्ती थे।
ये ऑडियो विजुअल मिलना आसान नहीं था। इसके लिए आकाशवाणी के अभिलेखागार और सूचना मंत्रालय के फोटो प्रभाग को खंगाला गया और मिलने के बाद उसे भेंट योग्य बनाया गया। याद रहे कि मार्टिन लूथर किंग बिहार के जननेता जयप्रकाश नारायण के आमंत्रण पर बिहार के नवादा स्थित कौग्वा कौल में शेखोंदेवरा आश्रम आए थे। यह स्थान अंडमान की तरह पिछड़ा था। प्रधानमंत्री ने ओबामा को मार्टिन लूथर किंग के अन्य स्मृति चिह्न भी दिए जिनमें एक फोटो में मार्टिन लूथर किंग राजघाट पर नजर आ रहे हैं। इन्हें भी ओबामा को फ्रेम कर दिया गया। इसके अलावा बराक ओबामा के लिए महात्मा गांधी द्वारा लिखित पुस्तक गीता भी ले गए हैं। ओबामा विश्व की इन दोनों हस्तियों महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग के बड़े प्रशंसक हैं।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन के अनुसार, व्यक्तिगत स्तर पर वह गांधीजी द्वारा लिखी गई गीता के विशेष संस्करण की प्रति लाए। यह गांधीजी द्वारा की गई गीता की व्याख्या है। यह पुस्तक कई साल पहले प्रकाशित हुई थी। प्रधानमंत्री ने विशेष रूप से इस पुस्तक के विशेष संस्करण का ऑर्डर दिया था। इसकी प्रतियां विशेष रूप से तैयार की गई थीं। उन्होंने कहा कि उन्होंने उन्हें कुछ अन्य निजी उपहार भी दिए। उन्हें मालूम था कि राष्ट्रपति ओबामा के मन में मार्टिन लूथर किंग के प्रति गहरा सम्मान है। ये सारी चीजें प्रधानमंत्री कार्यालय ने पहले से तैयार की थीं और आज राष्ट्रपति को भेंट की गईं।



बुधवार, 3 सितंबर 2014

डिजिटल इंडिया : तकनीक से बदलेगी तकदीर

 नरेंद्र मोदी सरकार 100 दिन पूरे कर चुकी है। बदलाव के नारे और अच्छे दिन लाने के वादे कर सत्ता में आने वाली सरकार के सौ दिनों के कामकाज और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातों पर गौर किया जाए तो साफ हो जाएगा कि सरकार तकनीक की तदबीर से तकदीर बदलने की कोशिश कर रही है।
लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल करने के बाद से ही मोदी ने रूढिय़ों को तोडक़र नई रवायत शुरू करने का साफ संकेत दे दिया था। संसद की सीढिय़ों को नमन करना हो, शपथ ग्रहण में पड़ोसी देशों को आमंत्रित करना या कार्यभार संभालते ही अधिकारियों से सीधा संवाद, मोदी ने बता दिया कि अब सबकुछ वैसा नहीं चलेगा जैसा अब तक चलता आया है। पूर्ववर्ती यूपीए सरकार पर ‘नीतिगत निष्क्रियता’ का आरोप लगाने वाले मोदी किसी मसले पर त्वरित निर्णय लेते हैं और अपने अमले को तुरंत कार्रवाई का आदेश देते हैं। अब मंत्री और वरिष्ठ नौकरशाह सीधे प्रधानमंत्री से संवाद और आदेश प्राप्त कर सकते हैं। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में 62 मंत्री समूह (जी.ओ.एम.) और मंत्रियों को अधिकार प्राप्त समूह (ई.जी.ओ.एम.) थे, उन्हें खत्म कर दिया गया है। अब शायद ही कोई मसला जी.ओ.एम. के पास भेजा जाता है। कानूनी मामलों के त्वरित समाधान के लिए मोदी सरकार ने नेशनल डाटा लिटिगेशन ग्रिड की स्थापना की है। नरेंद्र मोदी सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति और कड़े फैसले लेने का सबसे बड़ा उदाहरण है योजना आयोग का खात्मा। स्वतंत्रता दिवस पर पहली बार लाल किले पर ध्वज फहराने वाले मोदी ने भारत के गणतंत्र होने के वर्ष गठित हुई और राष्ट्र के विकास की रूपरेखा गढ़ती आई संस्था को खत्म करने की घोषणा कर साफ कर दिया कि यह सरकार मजबूत निर्णय करने में हिचकती नहीं है।
नई सरकार का तकनीक पर खासा जोर है। शपथ ग्रहण के बाद ही मंत्रियों को सोशल मीडिया पर आकाउंट बनाने और सूचनाएं साझा करने का फरमान सुना दिया गया था। प्रधानमंत्री ने भी अपना नया ट्विटर हैंडल बनाया और हर मामले-मौके पर उनके ट्वीट्स आने लगे। बाद में कई मंत्रियों और मंत्रालयों ने सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इसके पीछे सोच शायद यह है कि सूचनाएं सार्वजनिक करने से भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा, कार्य निष्पादन में तीव्रता आएगी और सरकार के प्रति एक सकारात्मक जनमानस का निर्माण होगा। अपने सौ दिनों के कार्यकाल में सरकार अपनी इस कोशिश में काफी हद तक सफल रही है।
सरकार गठन के साठ दिन पूरे होने पर सरकार ने ‘माई गॉव’ नामक एक वेबसाइट बनाई। इस साइट पर जाकर लोग सीधे सरकार से अपनी बात कह सकते हैं। तय विषयों पर अपनी राय तो दे ही सकते हैं, बहस-विमर्श भी कर सकते हैं। अभी लोगों से यह पूछा गया था कि योजना आयोग के स्थान पर वह किस प्रकार की संस्था चाहते हैं। इसका नाम क्या हो, टैगलाइन और लोगो किस प्रकार का हो, यह भी पूछा गया है। डिजिटल इंडिया के लिए लोगो डिजाइन करने की प्रतियोगिता भी रखी गई है। विजेता को 50 हजार रुपये का नगद इनाम दिया जाएगा। इससे पहले स्वतंत्रता दिवस पर ई-ग्रीटिंग्स प्रतियोगिता भी कराई गई थी। वेबसाइट पर ओपन फोरम भी है, जहां कोई भी नागरिक किसी मुद्दे पर अपनी राय दे सकता है। ‘भागीदारी से भरोसा’ का यह अनूठा प्रयास है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद तकनीक की ताकत के मुरीद हैं। नई तकनीक से अवगत होना और जनयोजनाओं के लिए उसका इस्तेमाल वह बखूबी जानते हैं। तभी तो उनके हर भाषण-संबोधन में तकनीकी विकास पर जोर होता है। लालकिले की प्राचीर से भी मोदी ने ‘ई-गवर्नेंस, इजी गवर्नेंस’ की बात कही थी। अपने इस वादे को निभाते हुए सरकार ने विभिन्न परियोजनाओं वाले ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम को मंजूरी दी और इसके लिए एक लाख करोड़ रुपये भी दिए। इसका लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी सेवाएं नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से उपलब्ध हों और लोगों को नवीनतम सूचना व संचार प्रौद्योगिकी का लाभ मिले। ‘डिजिटल इंडिया’ के तहत सरकार का लक्ष्य आईसीटी ढांचे का निर्माण करना है, जिससे ग्राम पंचायत स्तर पर हाईस्पीड इंटरनेट उपलब्ध कराया जा सके। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सरकारी सेवाएं मांग के अनुरूप उपलब्ध हों और डिजिटल माध्यम से साक्षरता के जरिए नागरिकों को सशक्त बनाया जा सके। राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस प्लान के बदले स्वरूप में पेश ‘डिजिटल इंडिया’ परियोजना के तहत ब्रॉडबैंड हाइवे, हर जगह मोबाइल कनेक्टिविटी, सार्वजनिक इंटरनेट एक्सेस, ई-गवर्नेंस, सभी के लिए सूचना, इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण, नौकरियों के लिए आईटी आदि शामिल हैं। मोदी सरकार अपने उद्देश्य में कितना सफल हो पाएगी, यह इस वक्त तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना तो तय है कि बदलाव की एक सकारात्मक शुरुआत हो चुकी है जो देश और जन को एक नई दिशा देगा।
नवोदय टाइम्स के 2 सितंबर 2014  के अंक में प्रकाशित।

रविवार, 31 अगस्त 2014

बिहार: शिक्षा के कुछ सवाल

नवोदय टाइम्स में 1 सितंबर 2014 को प्रकाशित।

ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में रैगिंग के बाद बिहार के सहकारिता मंत्री के बेटे की जान देने की कोशिश की घटना दुखद तो है ही, चिंता उत्पन्न करने वाली भी है। इस घटना के बाद से तथाकथित बड़े स्कूलों में छात्रों की स्थिति को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। छात्र का इलाज दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में चल रहा है। परिवार बेहाल है। और इन सबके बीच स्कूल प्रबंधन की लापरवाही (?) और घटनाक्रम को लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी चल रहे हैं। इस घटनाक्रम के पीछे जो मूल प्रश्न है, उसकी पड़ताल भी जरूरी है। सबसे बड़ा सवाल बिहार की शिक्षा व्यवस्था और पढ़ाई के स्तर को लेकर है।
आज बिहार के किसी संपन्न परिवार का बच्चा अपने शहर-गांव में नहीं पढ़ता। अभिभावक बच्चों को बेहतर शिक्षा के लिए बाहर के राज्यों में भेजते हैं। बच्चे बड़े हों तो घर के बाहर के माहौल में एडजस्ट कर भी लेते हैं, लेकिन कच्ची उम्र के बच्चों के साथ कई दिक्कतें पेश आती हैं। पढऩे-बढऩे और खेलने-कूदने की उम्र में क्यों बच्चों को माता-पिता के साये से दूर कर दिया जाता है। बिहार में शिक्षा के स्तर पर ध्यान दें तो जवाब भी खुद-ब-खुद मिल जाएंगे।
बिहार में आबादी के हिसाब से स्कूलों की संख्या काफी कम है। गरीबी और परिवार की अशिक्षा के कारण बच्चे स्कूलों में नहीं भेजे जाते। वर्ष 2006 में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य के करीब 13 फीसदी बच्चों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। हाल के दिनों में इस आंकड़े में कमी आई है, लेकिन सरकारी आंकड़ों और जमीनी हालात में अंतर क्या होता है, यह बताने की जरूरत नहीं। जो बच्चे स्कूल आते भी हैं लेकिन वहां उनका कितना विकास होता है या हो सकता है। सरकारी स्कूलों में तो पढ़ाई का भगवान ही मालिक है। पाठशाला की देहरी पर जिनके ऊपर पढ़ाई का जिम्मा है उनकी शिक्षा का स्तर खुद सवालों में है। नेशनल स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वे में सामने आया कि प्राथमिक विद्यालयों के 21 फीसदी शिक्षक खुद मैट्रिक पास नहीं हैं। अब ऐसे शिक्षक बच्चों को क्या सिखाएंगे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए गांव-देहात से लेकर शहरों की तंग गलियों में प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं। मोटी फीस और टाई-कोट के ड्रेस कोड वाले शहरी प्राइवेट स्कूलों में एक्सट्रा करिकुलर एक्टिविटी और टीचर्स-डे, पेरेंट्स-डे आदि तो
खूब मनाए जाते हैं। और जो सबसे जरूरी है पढ़ाई- उसके लिए ट्शूशन है न। स्कूलों के टीचर्स ही ट्यूशन और कोचिंग के धंधे में लिप्त हैं और दोहरी फीस भरने के बाद भी बच्चों की शिक्षा अभिभावकों को ही पूरी करानी पड़ती है। कस्बों और गांवों के प्राइवेट स्कूलों की तो पूछिए ही नहीं। जो व्यक्ति कहीं कोई काम नहीं कर सका वह अपने जैसे ही कुछ लोगों को इकट्ठा कर स्कूल खोल लेता है। स्कूलों में टीचरों के नाम पर बेरोजगार और जरूरतमंदों को भर्ती कर उन्हें चंद रुपये देकर काम चला लिया जाता है। प्राइवेट स्कूलों का पूरा शास्त्र और अर्थशास्त्र मुनाफे के मनोविज्ञान पर चलता है।

टैलेंट और धन का पलायन : बिहार से बड़ी संख्या में छात्र स्नातक स्तर पर पलायन कर जाते हैं। इंजीनियरिंग, मेडिकल से लेकर मैनेजमेंट और अन्य रोजगारपरक पढ़ाई के लिए प्रति वर्ष करीब एक लाख छात्र दिल्ली, कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान का रुख कर लेते हैं। इन राज्यों के शिक्षण संस्थान भी ऐसे छात्रों पर निगाहें टिकाए रखते हैं। कोचिंग, ट्यूशन और तैयारी के नाम पर छात्रों से रकम ऐंठने का कारोबार शुरू हो जाता है। हर साल सैकड़ों छात्र एडमिशन के नाम पर ठगी का शिकार बनते हैं। अगर एक छात्र का मासिक खर्च 10 हजार रुपया भी मान लें तो हर साल बिहार से करीब 1200 करोड़ रुपया दूसरे राज्यों में चला जाता है।
देश की प्रशासनिक सेवाओं में सबसे अधिक बिहार के छात्र सफल होते हैं। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता परीक्षाओं से लेकर रेलवे और एसएससी जैसी परीक्षाओं में सफलता हासिल करने वालों में बिहारियों का पहला स्थान है, लेकिन क्या ये सारे छात्र बिहार में रहकर पढ़ाई करते हैं। नि:संदेह नहीं। क्या ऐसे में सरकारों का यह दायित्व नहीं है कि वह राज्य की प्रतिभाओं को अपने घर में फलने-फूलने और विकसित होकर सफलता की बुलंदियों पर पहुंचने का मौका दें। इसके लिए जरूरी है साफ नीयत और दृढ़ संकल्प की, लेकिन वोट बैंक की राजनीति करने वालों की इसकी फिक्र कहां।

सियासत का ग्रहण : प्राचीन काल में शिक्षा की रोशनी से पूरे विश्व को रोशन करने वाले बिहार की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक समय में सियासत का ग्रहण लील रहा है। अस्सी के दशक में जगन्नाथ मिश्र ने उर्दू को राजभाषा का दर्जा दे दिया। इस कदम से वह मुस्लिमों के बीच हीरो तो बन गए, कई क्षेत्रीय भाषाएं पीछे रह गईं। लालू प्रसाद यादव सत्ता में आए तो चरवाहा विद्यालय की परिकल्पना साकार हुई। लालू ने स्कलों को ही छात्रों तक पहुंचा दिया और गांवों में गाय-भैंस चराने वाले, मछली पकडऩे वाले या किसी अन्य माध्यम से आजीविका अर्जित करने में परिवार की मदद करने वाले बच्चों के लिए तालीम के दरवाजे खुले, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और लालफीताशाही के कारण यह योजना भी ठंडे बस्ते में चली गई। हां, इस दौरान गांवों में स्कूल बनाने के नाम पर नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों ने खूब चांदी काटी। नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर से शिक्षा को लेकर उम्मीदें जागीं। नीतीश ने पंचायत स्तर पर शिक्षा मित्रों की नियुक्ति कर अध्यापकों के रिक्त पदों को भरने की कोशिश की। लेकिन ये नियुक्तियां भी विवादों से बच नहीं सकीं। धांधली और अनियमितताओं के सहारे नौकरी पाने वाले की शिक्षक ढंग से संडे, मंडे भी नहीं लिख पाते।
आप नॉस्टैलजिक हों तो जपते रहिए नालंदा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी का नाम, लेकिन आज के दौर में कोई मानेगा नहीं कि ये स्थान कभी वाकई बिहार में ही थे।

शनिवार, 16 अगस्त 2014

सोशल मीडिया कितना सोशल??



क्या कभी सोशल मीडिया के बारे में सोचा है? मसलन, यह क्यों बना और और किस सिद्धांत पर काम करता है? लैपटॉप-कंप्यूटर से लेकर स्मार्टफोन तक के जरिये फेसबुक-ट्विटर से जुड़े रहने वाले आप सोच रहे होंगे कि यह कितना फालतू सवाल पूछा गया है। आज दुनिया संचार के हजारहां माध्यमों का इस्तेमाल पता नहीं किन-किन सूचनाओं और भावनाओं के संप्रेषण के लिए कर रही है और आप हैं कि जड़ें ढूंढने में लगे हैं।
पूरा का पूरा सोशल मीडिया तुलनात्मक उत्कृष्टता और विशेषज्ञता के सिद्धांत पर काम करता है। सालों पहले आया एक डिटर्जेंट का विज्ञापन याद तो होगा आपको। एक महिला दूसरी को देखकर हतप्रभ होती है और कहती है ‘उसकी साड़ी, मेरी साड़ी से सफेद कैसे?’ इसी सवाल में छिपा है सोशल मीडिया का सच। आज के दौर में हर इंसान इसी फितरत में लगा है कि वह कैसे साबित करे कि वह दूसरों से सुंदर, अच्छा, धनवान, बलवान और ज्ञानवान है। यही भावना उसे सोशल मीडिया पर एक्टिव बनाती है। आप रोज देखते होंगे कि लोग अपने जीवन की छोटी से छोटी घटना को सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। एकसाथ सैकड़ों लोगों तक अपने बारे में जानकारी पहुंचाने का यह बेशक सशक्त माध्यम हो, लेकिन विचार इस पर भी करना होगा कि सूचनाएं कैसी हों। आज मैं पार्क में गया था, एज्वाइंग आइसक्रीम विद माई फैमिली, इट इज रेनिंग इन माई सिटी, ब्राट ए न्यू स्कार्फ वगैरह-वगैरह। सवाल यह कि इन सूचनाओं या जानकारियों का किसी दूसरे व्यक्ति के लिए क्या कोई मतलब होता है। फिर भी लोग लाइक करते हैं और एक से बढक़र एक सतही और सस्ते कमेंट भी लिखते हैं। क्या यही सामाजिकता है और इसी रूप में लोग अपनों के साथ करीबी महसूस करते हैं। सोशल मीडिया पर देशकाल को लेकर भी हर व्यक्ति अपनी राय जाहिर कर रहा होता है, उस पर बहसें होती हैं, कुछ अच्छी-बुरी बातें कही जाती हैं, लेकिन क्या यह सच में होता है। मेरी यह स्पष्ट राय है कि लोग केवल अपने को या अपनी बातों को साबित कराने की चेष्टा कर रहे होते हैं, क्योंकि यह उनको ‘मेरी साड़ी ज्यादा सफेद’ होने की संतुष्टि प्रदान करता है। बहुत कम ही मौके होते हैं जब कोई अपनी सच्ची भावना व्यक्त करता है और कोई मित्र उसे शिद्दत से महसूस करता है। (याद रखें कि सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर सभी फ्रेंड होते हैं।) अगर किसी ने कोई गंभीर बात कही भी तो कमेंटों और शेयरों के चक्कर में उसकी गंभीरता की भद्द पिटना तय है। तो क्या किसी काम का नहीं है सोशल मीडिया???
सोशल मीडिया में कनेक्शन की गजब ताकत है। हमें याद रखना होगा कि 16 दिसंबर की घटना के बाद दिल्ली की सडक़ों पर युवाओं का हुजूम यूं ही नहीं उमड़ा था। दर्द और आक्रोश से भरे मन को एकजुट करने में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी। देश-दुनिया में चर्चित अन्ना का आंदोलन हो या केजरीवाल का सियासी सफर- सोशल मीडिया की ताकत से इनकार नहीं किया जा सकता। यह इस माध्यम का सबसे सकारात्मक उपयोग था, लेकिन आम जीवन में हम इसका कैसे और किन प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल करते हैं। भारत जैसे देश में सोशल मीडिया की यह ताकत एक खतरे का संकेत भी है। हाल ही में हमने देखा कि उत्तर प्रदेश में हुई कुछ सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के पीछे जो अफवाह काम कर रही थी वह सोशल मीडिया के जरिये फैलाई गई थी। किसी ने एक सुनी-सुनाई बात पोस्ट कर दी और सैकड़ों-हजारों लोगों ने बिना सोचे-समझे उसे साझा कर दिया। जहां यह होड़ मची हो कि सूचनाओं के मामले में भी मेरी गति दूसरों के मुकाबले अधिक है, वहां सोचने-समझने की फुरसत किसे है? सोच-विचार में दो मिनट भी देर हुई तो अपने ‘मित्रों’ से पीछे छूट जाएंगे। नतीजा कितना गंभीर निकला यह हम सब जानते हैं।
दूसरी समस्या है सरकारी और विधायी स्तर पर। भारत में इंटरनेट और सोशल मीडिया को लेकर स्पष्ट और ठोस कानून बनाए जाने की मांग तो उठ रही है, लेकिन इस दिशा में प्रयास की गति काफी कम है। समाज के ताने-बाने को नुकसान पहुंचने या अपने स्वार्थ के लिए अफवाहें फैलाने वाले भी जानते हैं कि इस माध्यम का किस तरह से बेजा इस्तेमाल कर वह अपने मंसूबों में कामयाब होंगे और कानून के फंदे से बचे भी रह सकेंगे। साइबर लॉ के बारे में हमारे देश में जागरूकता शून्य के आसपास ही है। और जिस पुलिस को साइबर अपराध की जांच का जिम्मा दिया जाता है उसकी तकनीकी जानकारी का स्तर किसी से छिपा नहीं है। महानगरों में तो पुलिस ने साइबर सेल स्थापित भी किए हैं, लेकिन छोटे कस्बों और गांवों तक पैर पसार चुके इंटरनेट के जरिये अपराध को रोकने की कोई संरचना हम नहीं बना पाए हैं। अगर यही रफ्तार रही तो अगले कुछ दशकों तक इसकी संभावना भी नहीं है। तब तक कानूूनी तौर पर नियमन की बात तो आप भूल ही जाएं। ऐसे में इंटरनेट से लेकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों के पास स्वनियमन का ही रास्ता बचता है। हमें खुद अपनी सुरक्षा और वैयक्तिकता को बचाने के लिए सजग होना होगा।