इरोम ने रास्ता बदला, इरादा नहीं
ठीक 15 साल, 9 महीने और 7 दिन पहले मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) के खिलाफ शुरू हुए इरोम चानू शर्मिला के अनशन की अचानक समाप्ति को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। लोग उन पर हंस सकते हैं और पूछ सकते हैं कि मकसद हासिल किए बिना ही अनशन खत्म करना था तो शुरू ही क्यों किया; या फिर तमाम विरोधों, दबावों और जेल यात्राओं के बावजूद इतने दिनों तक जारी क्यों रखा। सियासत की समझ होने का दावा करने वाले कुछ लोग इसे दिल्ली के केजरीवाल मॉडल की नकल बता सकते हैं। सवाल और संदेह करने वाले तो कई होंगे, लेकिन इस प्रश्न का जवाब शर्मिला के फैसले में ही छिपा है।
4 नवंबर 2000। वह तारीख जब 28 साल की इरोम ने भूख हड़ताल शुरू की थी, तब भी उन पर तंज करने वालों या उनके निर्णय को भावुकता भरा कदम बताने वालों की कमी नहीं थी। इसके ठीक दो दिन पहले शांति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम इंफाल से सटे मलोम में एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैंड पर सुरक्षा बलों ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाईं। 10 लोग मारे गए। इस घटना ने इरोम के कोमल और विद्रोही मन पर गहरी छाप छोड़ी और उन्होंने इसके खिलाफ लडऩे का फैसला कर लिया। उस समय भी उन्होंने बंदूक या हिंसा का सहारा नहीं लिया, बल्कि लोकतांत्रिक राह चुनी। सवाल फिर हुए कि मलोम में मरने वालों में से कोई क्या इरोम का रिश्तेदार था; लेकिन अपनी जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और लोगों के प्रति प्रेम से भरे हृदय के लिए इस बेकार से सवाल का कोई मतलब नहीं था।
इरोम का अनशन शुरू करना और फिर इतने लंबे समय के बाद खत्म करना- दोनों घटना जितनी हैरान करने वाली है उतनी ही सुखद भी। दोनों घटनाएं यह बताने के लिए भी पर्याप्त हैं कि पूर्वोत्तर की आयरन लेडी का लोकातांत्रिक मूल्यों और पद्धतियों में कितना अटूट विश्वास है। तभी तो उन्होंने कहा कि वह मुख्यमंत्री बनकर भी अफस्पा के खिलाफ अपनी जंग जारी रखेंगी। यानी इरोम ने अपना रास्ता बदला है, इरादा नहीं। भारतीय समाज किसी भी महान व्यक्तित्व को देवत्व के आसन पर बिठा देता है। उसे सम्मान की सुनहरी बेडिय़ों में जकडऩे की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। इरोम ने अपना अनशन खत्म कर ऐसे प्रयासों को एकबारगी ही धता बता दिया। वह साफ तौर पर यह संदेश देने में सफल रही हैं कि उनकी लड़ाई अफस्पा से है और वह सामान्य नागरिक की हैसियत से भी सियासत के जरिये यह लड़ाई जारी रखेंगी। इरोम को उम्मीद थी कि उनका अनशन अंधी-बहरी व्यवस्था पर प्रहार करेगा और अफस्पा का मुद्दा पूरे देश में चर्चा के केंद्र में होगा। इस मुद्दे पर राजनीतिक सहमति बनने की दिशा प्रशस्त होगी और आखिरकार उनकी मिट्टी को फौजी बूटों की कदमताल से मुक्ति मिलेगी। समय बीतता गया और लोगों ने इरोम को उनके संघर्ष के साथ ही स्वीकार कर लिया, लेकिन वह नहीं हुआ जो इरोम चाहती थीं। अफस्पा को लेकर मरी-बुझी प्रतिक्रियाओं के सिवाय सियासी जमात से कुछ नहीं आया। जीवन रेड्डी समिति की इस अनुशंसा पर भी कुछ नहीं किया गया कि अफस्पा के स्थान पर कोई हल्का कानून लाया जाए। ऐसे में इरोम के पास दो रास्ते थे, या तो वह रोल मॉडल बनकर अस्पताल में अपने कमरे में रहकर परिवर्तन का इंतजार करें या मैदान में आकर बदलाव की लड़ाई नए सिरे से शुरू करें। मकसद की लड़ाई में युवावस्था के सारे अरमानों को दरकिनार कर देने वाली महिला से यही उम्मीद थी कि वह दूसरा रास्ता चुनेंगी और उन्होंने चुना भी।
इरोम ने अपने जीवन को फौलादी इरादों से बख्तरबंद जरूर कर लिया था, लेकिन एक स्त्री मन की कोमलता का सोता हमेशा उनके हृदय से फूटता रहा। यह मन जब बेचैन हो जाता था तो कविताएं कहता था, हल्के क्षणों में रेखाओं के साथ अठखेलियां करता था तो कभी परिवार और प्रेम के बारे में सोचकर व्यथित भी हो जाता था। इरोम की हमेशा से ख्वाहिश सामान्यता की रही। वह चाहती थीं कि मणिपुर के हालात सामान्य हों और वह एक सामान्य स्त्री की तरह घर बसाए, प्रेम करे, परिवार में रहे। अनशन खत्म करने के दौरान इरोम ने यह भी बता दिया कि वह अपने गोवन-ब्रिटिश मंगेतर डेसमंड कूटीन्यो के साथ परिणय सूत्र में बंधेगी। मां सखी देवी खुश हैं कि अब परिवार 'निंगोल चकोबा' (मणिपुरी महिलाओं का सबसे बड़ा त्योहार) मना सकेगा जो उन्होंने इरोम के संघर्ष में साथ देने के प्रतीक के रूप में बंद कर दिया था। लेकिन मणिपुर को इंतजार है इचे (बड़ी बहन) की जीत का, जब मणिपुर फौजी नियंत्रण से मुक्त होकर आमजन की आकांक्षाओं को उड़ान देगा। सभी को यही इंतजार है। शायद!
(12 अगस्त 2016 को प्रकाशित)
| 12 अगस्त 2016 को नवोदय टाइम्स में प्रकाशित खबर। |


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