सोमवार, 10 दिसंबर 2018

हाशिये के हिंदुस्तान का केंद्रीय चेहरा थे ओम


ओम पुरी के साथ सुपर स्टार, मेगा स्टार या ऐसी ही कोई उपाधि या उपनाम तो नहीं जुड़ा था, लेकिन भारतीय सिनेमा और सिनेप्रेमियों के मन में उनके लिए जो स्थान है वह किसी अन्य संबोधन का मोहताज भी नहीं। ओम बड़े कलाकार थे, सच्चे कलाकार थे। नायक-नायिका के रूमानी अफसानों और कभी-कभी सामाजिक समस्याओं को छूकर निकल जाने वाली फिल्मों के चलन के बीच ओमुपरी जैसे अत्यंत ही साधारण या सामान्य नाक-नक्श वाले अभिनेता की स्वीकार्यता और प्रशंसा फिल्मों की लेकर बदलती दिशा और दर्शकों के गंभीर जुड़ाव का द्योतक थी। फिर अपनी मेहनत और शत्-प्रतिशत से कम पर समझौता नहीं करने की जिद ने ओम को हाशिये के हिंदुस्तान का केंद्रीय चेहरा बना दिया।

मनोरंजन के साथ-साथ फिल्में काफी पहले से समाज के हर अक्स का आईना बनने की कोशिश करती रही हैं। सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे फिल्मकार नए शिल्प के साथ सामाजिक यथार्थ को गढ़ते रहे थे। क्षेत्रीय भाषाओं में भी नए प्रतिमान स्थापित हो रहे थे, लेकिन मुख्यधारा का सिनेमा व्यावसायिक उद्देश्यों के साथ केवल मनोरंजन पर केंद्रित होता जा रहा था। फिर, श्याम बेनेगल और पहलाज निहलानी जैसे फिल्मकारों ने अस्सी के दशक में हिन्दी सिनेमा को एक सीधी पटरी के आसान सफर से सच्चाई की कठोर जमीन पर उतारना शुरू किया। यही वह वक्त था जब ओम पुरी फिल्मों में अपनी पहचान बनाने के लिए कोशिश कर रहे थे। फिल्में अब सामाजिक विसंगतियों एवं व्यवस्था के विद्रूप को उसके पूरे नंगेपन में उजागर कर रही थी और साथ ही उनकी आंखों में आंखें डालकर चुनौती भी दे रही थी। इसके बाद तो हर फिल्म के साथ नए प्रतिमान गढ़े जाने लगे, नए कथ्य और शिल्प के साथ बेमिसाल चरित्रों से दर्शकों का परिचय हुआ। ओम पुरी ने अपने फिल्मी सफर की शुरुआत मराठी नाटक पर आधारित फिल्म 'घासीराम कोतवाल' से की थी। लेकिन जिस फिल्म ने उन्हें पहचान दिलाई वह थी 1980 में आई 'आक्रोश'। मजदूर लाहन्यिा भीखू के इस किरदार में ओम ऐसे घुलमिल गए कि कोई भी चरित्र एवं अभिनेता को अलग करके देख ही नहीं सकता। लाहन्यिा के रूप में उनकी आवाज सिर्फ दो बार फिल्म में है, लेकिन उनके मौन का आक्रोश लोगों के दिल में उतर गया। 'विजेता' (1982), 'आरोहण' (1982), 'अर्धसत्य' (1983), 'नासूर' (1985), 'माचिस' (1996) के साथ प्रशंसा और पुरस्कारों की झड़ी लग गई। ओम पुरी ने जिस तरह की फिल्म की वैसे ही चरित्र को सिनेमा के पर्दे पर उतार दिया। व्यावसायिक फिल्मों में भी अपने अभिनय और दमदार आवाज की बदौलत नई ऊंचाइयों को छुआ। नरसिम्हा (1991) में 'बाप जी' के किरदार को कौन भूल सकता है। कॉमेडी में ओम पुरी का जलवा अलग ही निखार पाता था। जाने भी दो यारों जैसी चर्चित फिल्म का बिल्डर अहूजा हो या चाची 420 का बनवारी लाल पांडेय, मालामाल वीकली का बल्लू या हेराफेरी का खडग़ सिंह, हर भूमिका में ओम पुरी की भूमिका अलग और यादगार रही। ओम पुरी एक तरह के चरित्र में भी अलग अभिनय करने का माद्दा रखते थे। उन्होंने कई फिल्मों में पुलिस अधिकारी की भूमिका की, लेकिन अर्धसत्य का पुलिस अधिकारी, देव, द्रोहकाल, गुप्त, प्यार तो होना ही था, और फर्ज का अधिकारी कभी एक जैसा नहीं लगा। रेखाएं खींचकर भविष्यवाणी करने वाला मकबूल का इंस्पेक्टर पंडित तो अलग ही ऊंचाई का चरित्र था।

उन्होंने गांधी, ज्वैल इन द क्राउन, सिटी ऑफ जॉय, माई सन द फैनेटिक जैसी अंग्रेजी फिल्मों में काम किया। 1999 में फिल्म ईस्ट इज ईस्ट में एक पाकिस्तानी के किरदार में खूब वाहवाही बटोरी। उन्होंने पाकिस्तानी फिल्मों में भी काम किया था। उन चंद कलाकारों में से थे जिन्हें भारत और ब्रिटेन दोनों सरकारों के उच्च पुरस्कार मिले। 1990 में उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्म श्री मिला तो 2004 में ब्रिटिश फिल्मों में योगदान के लिए ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश अंपायर से नवाजा गया। कई फिल्म फेस्टिवलों में भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार उन्हें मिला। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ओम पुरी अभिनय का स्कूल थे। उन्होंने कई पीढिय़ों के साथ काम किया और उन्हें अभिनय की बारीकियां सिखाई। ओम पुरी का फिल्म इंडस्ट्री में कोई गॉडफादर नहीं था, लेकिन अपनी प्रतिभा और मेहनत की बदौलत एक-एक सीढ़ी चढ़कर उन्होंने अपना अलग मुकाम हासिल किया था। कभी तंगहाली में ढाबे पर नौकरी करने वाले ओम को जीवन ने भी काफी पहाड़े सिखाए थे और यही कारण था कि निजी जीवन में भी वह सही को सही या गलत को गलत कहने का साहस रखते थे। देश और समाज के बारे में आज भी कई स्टार बोलने से हिचकते हैं, वहीं ओम पुरी ने हर अवसर पर वही किया जो सही समझा, पूरी बेबाकी से वही कहा जिसे सही माना। वे अपने विचारों में जितने दृढ़ और पैने थे, दैनिक जीवन में उतने ही मिलनसार और हंसोड़। वे आज हमें छोड़कर चले जरूर गए हैं, लेकिन महान कलाकार के साथ संपूर्ण इंसान के रूप में हमेशा याद किए जाते रहेंगे।
(7 जनवरी 2017 को प्रकाशित)

7 जनवरी 2017 को नवोदय टाइम्स में प्रकाशितhttp://epaper.navodayatimes.in/1062995/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/1/1

इरोम ने रास्ता बदला, इरादा नहीं  




ठीक 15 साल, 9 महीने और 7 दिन पहले मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) के खिलाफ शुरू हुए इरोम चानू शर्मिला के अनशन की अचानक समाप्ति को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। लोग उन पर हंस सकते हैं और पूछ सकते हैं कि मकसद हासिल किए बिना ही अनशन खत्म करना था तो शुरू ही क्यों किया; या फिर तमाम विरोधों, दबावों और जेल यात्राओं के बावजूद इतने दिनों तक जारी क्यों रखा। सियासत की समझ होने का दावा करने वाले कुछ लोग इसे दिल्ली के केजरीवाल मॉडल की नकल बता सकते हैं। सवाल और संदेह करने वाले तो कई होंगे, लेकिन इस प्रश्न का जवाब शर्मिला के फैसले में ही छिपा है।

4 नवंबर 2000। वह तारीख जब 28 साल की इरोम ने भूख हड़ताल शुरू की थी, तब भी उन पर तंज करने वालों या उनके निर्णय को भावुकता भरा कदम बताने वालों की कमी नहीं थी। इसके ठीक दो दिन पहले शांति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम इंफाल से सटे मलोम में एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैंड पर सुरक्षा बलों ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाईं। 10 लोग मारे गए। इस घटना ने इरोम के कोमल और विद्रोही मन पर गहरी छाप छोड़ी और उन्होंने इसके खिलाफ लडऩे का फैसला कर लिया। उस समय भी उन्होंने बंदूक या हिंसा का सहारा नहीं लिया, बल्कि लोकतांत्रिक राह चुनी। सवाल फिर हुए कि मलोम में मरने वालों में से कोई क्या इरोम का रिश्तेदार था; लेकिन अपनी जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और लोगों के प्रति प्रेम से भरे हृदय के लिए इस बेकार से सवाल का कोई मतलब नहीं था।
इरोम का अनशन शुरू करना और फिर इतने लंबे समय के बाद खत्म करना- दोनों घटना जितनी हैरान करने वाली है उतनी ही सुखद भी। दोनों घटनाएं यह बताने के लिए भी पर्याप्त हैं कि पूर्वोत्तर की आयरन लेडी का लोकातांत्रिक मूल्यों और पद्धतियों में कितना अटूट विश्वास है। तभी तो उन्होंने कहा कि वह मुख्यमंत्री बनकर भी अफस्पा के खिलाफ अपनी जंग जारी रखेंगी। यानी इरोम ने अपना रास्ता बदला है, इरादा नहीं। भारतीय समाज किसी भी महान व्यक्तित्व को देवत्व के आसन पर बिठा देता है। उसे सम्मान की सुनहरी बेडिय़ों में जकडऩे की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। इरोम ने अपना अनशन खत्म कर ऐसे प्रयासों को एकबारगी ही धता बता दिया। वह साफ तौर पर यह संदेश देने में सफल रही हैं कि उनकी लड़ाई अफस्पा से है और वह सामान्य नागरिक की हैसियत से भी सियासत के जरिये यह लड़ाई जारी रखेंगी। इरोम को उम्मीद थी कि उनका अनशन अंधी-बहरी व्यवस्था पर प्रहार करेगा और अफस्पा का मुद्दा पूरे देश में चर्चा के केंद्र में होगा। इस मुद्दे पर राजनीतिक सहमति बनने की दिशा प्रशस्त होगी और आखिरकार उनकी मिट्टी को फौजी बूटों की कदमताल से मुक्ति मिलेगी। समय बीतता गया और लोगों ने इरोम को उनके संघर्ष के साथ ही स्वीकार कर लिया, लेकिन वह नहीं हुआ जो इरोम चाहती थीं। अफस्पा को लेकर मरी-बुझी प्रतिक्रियाओं के सिवाय सियासी जमात से कुछ नहीं आया। जीवन रेड्डी समिति की इस अनुशंसा पर भी कुछ नहीं किया गया कि अफस्पा के स्थान पर कोई हल्का कानून लाया जाए। ऐसे में इरोम के पास दो रास्ते थे, या तो वह रोल मॉडल बनकर अस्पताल में अपने कमरे में रहकर परिवर्तन का इंतजार करें या मैदान में आकर बदलाव की लड़ाई नए सिरे से शुरू करें। मकसद की लड़ाई में युवावस्था के सारे अरमानों को दरकिनार कर देने वाली महिला से यही उम्मीद थी कि वह दूसरा रास्ता चुनेंगी और उन्होंने चुना भी।


इरोम ने अपने जीवन को फौलादी इरादों से बख्तरबंद जरूर कर लिया था, लेकिन एक स्त्री मन की कोमलता का सोता हमेशा उनके हृदय से फूटता रहा। यह मन जब बेचैन हो जाता था तो कविताएं कहता था, हल्के क्षणों में रेखाओं के साथ अठखेलियां करता था तो कभी परिवार और प्रेम के बारे में सोचकर व्यथित भी हो जाता था। इरोम की हमेशा से ख्वाहिश सामान्यता की रही। वह चाहती थीं कि मणिपुर के हालात सामान्य हों और वह एक सामान्य स्त्री की तरह घर बसाए, प्रेम करे, परिवार में रहे। अनशन खत्म करने के दौरान इरोम ने यह भी बता दिया कि वह अपने गोवन-ब्रिटिश मंगेतर डेसमंड कूटीन्यो के साथ परिणय सूत्र में बंधेगी। मां सखी देवी खुश हैं कि अब परिवार 'निंगोल चकोबा' (मणिपुरी महिलाओं का सबसे बड़ा त्योहार) मना सकेगा जो उन्होंने इरोम के संघर्ष में साथ देने के प्रतीक के रूप में बंद कर दिया था। लेकिन मणिपुर को इंतजार है इचे (बड़ी बहन) की जीत का, जब मणिपुर फौजी नियंत्रण से मुक्त होकर आमजन की आकांक्षाओं को उड़ान देगा। सभी को यही इंतजार है। शायद! 
(12 अगस्त 2016 को प्रकाशित)

12 अगस्त 2016 को नवोदय टाइम्स में प्रकाशित खबर।
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