मंगलवार, 15 सितंबर 2015

भाजपा और हम-दोनों की मजबूरी थी मेल-मिलाप


बिहार में सीटों के बंटवारे पर दलों और नेताओं के रूठने-मनाने और भेंट-मुलाकात के लंबे दौर के बाद सहमति भले ही बन गई हो और भाजपा प्रमुख अमित शाह एवं हम के अध्यक्ष जीतन राम मांझी समेत सभी एनडीए नेता एकजुटता के दावे करते दिख रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि यह मेल-मिलाप दोनों दलों की मजबूरी ही थी। हम के लिए एनडीए में बने रहना फायदे का सौदा है तो भाजपा को नीतीश की काट के लिए उनके पूर्व सहयोगी से अच्छा कोई मिल नहीं सकता था। मांझी के बहाने भाजपा नीतीश कुमार पर दलित के अपमान का आरोप लगाती रही है। फिर, मांझी के साथ दलित-महादलित वोट और संवेदना तो है ही, अगड़ी जातियों में जनाधार वाली भाजपा के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नाता तोडऩे और अपनी पार्टी के गठन के बाद से ही मांझी एक-एक कर सारे समीकरणों को टटोलते रहे हैं। भाजपा के कुनबे में आने से पहले मांझी किसी मंजे खिलाड़ी की तरह अपने सारे घरों के दुरुस्त करते हुए बीच-बीच में बयानों और मुलाकातों से साथ एवं सहयोग की संभावनाएं तलाशते रहे। पहले अकेले चुनाव लडऩे की बात कहने वाले मांझी कभी पप्पू यादव से मुलाकात कर तो कभी सीएम पद के लिए खुद को प्रत्याशी बताकर अपने पक्ष में हवा बनाते रहे। हालांकि, राज्य में दलित चेहरे के सवाल पर लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के साथ उनकी कड़वाहट भी रही। मांझी जानते हैं कि उनकी पार्टी अपने सारे घोड़े खोल भी दे तो जीतना तो दूर, राज्य की सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी खड़े नहीं कर सकती। ऐसे में उनकी प्रमुख शक्ति महादलित होना ही है और इसी आधार पर वह मैदान के एक छोटे हिस्से पर कब्जा कर सत्ता में हिस्सेदारी कर पाएंगे। भाजपा के साथ सीटों पर पेंच फंसने पर मांझी ने आखिरी दांव चलते हुए राजद प्रमुख लालू प्रसाद को अपने खेमे में करने की भी नाकाम कोशिश कर ली। बीते दिनों लालू के साथ महाचंद्र प्रसाद सिंह की मुलाकात ने कई अटकलों की तो जन्म दिया लेकिन परिणाम, उम्मीद के अनुसार, शून्य ही रहा। भाजपा विरोधी महागठबंधन से सपा के छिटकने के बाद भी इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि लालू, नीतीश को छोड़ मांझी का हाथ थामेंगे।
मांझी को लेकर एनडीए के भीतर करीब सप्ताह भर स्थिति भले ही डंवाडोल होती रही, लेकिन यह भी सबको मालूम था कि भाजपा उन्हें अलग करने का जोखिम नहीं उठाएगी। जदयू के सहयोगी के तौर पर सरकार बनाने वाली भाजपा के लिए यह चुनाव अपने बूते कुछ कर गुजरने का बड़ा मौका है और वह ऐसा कुछ नहीं करेगी जिससे गलत संदेश जाने का अंदेशा हो। मांझी को अलग कर भाजपा पर दलित-महादलित विरोधी कहलाने या उनके वोट खिसकने का रिस्क नहीं ले सकती। सीएम की कुर्सी छोडऩे के बाद से बात-बात पर दलित नेता होने की बात कहने वाले मांझी अलग होने के बाद भाजपा के लिए चुनाव में परेशानी खड़ी कर सकते थे। दूसरा, सीएम आवास खाली करने से लेकर आम-लीची तक पर नीतीश के साथ रार लेने वाले मांझी को नीतीश की काट के रूप में देखा जा रहा है और भाजपा चाहती है कि महादलितों की इस टीस का लाभ वह वोट के रूप में हासिल कर सके। मांझी राज्य में महादलित या निचले पायदान की मुसहर जाति से हैं। राज्य की 16 प्रतिशत दलित-महादलित जातियों में इनकी आबादी करीब 15 फीसदी है और किसी भी राजनीतिक मोर्चे की संभावनाएं उभारने या गिराने का दमखम रखती हैं। अगर दलित जातियां एक साथ वोट करने का मन बना लेती हैं तो ये बिहार में मजबूत वोट बैंक में तब्दील हो जाती हैं। मांझी राज्य में महादलित वोटों को एकजुट करने की यही क्षमता रखते हैं। इस बार कड़ी टक्कर वाले दो ध्रुवीय चुनावों में जदयू-राजद-कांग्रेस महागठबंधन को यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटों में बड़ी हिस्सेदारी मिलने की उम्मीद है। वहीं, भाजपा की अगुआई वाले एनडीए को ऊंची जातियों (ब्राह्मण-राजपूत), वैश्य-व्यापारी के वोट बड़े पैमाने पर मिलने भरोसा है। मांझी के नाम पर अगर पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित-महादलित वोट भाजपा को मिलते हैं तो भाजपा के लिए सत्ता का सपना देखना आसान होगा।

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

हमराही अब हमलावर

बिहार विधानसभा चुनाव का एलान होने के साथ ही राज्य में चुनावी पारा चढ़ गया है। बिसात बिछ गई है लेकिन ‘एड फ्रैंड’ और ‘अनफ्रैंड’ (सोशल मीडिया में दोस्त बनाने या दोस्ती तोडऩे के लिए इस्तेमाल शब्द) के दौर ने तस्वीर पूरी तरह बदल दी है। दलों
राजद अध्यक्ष लालू यादव के कार्यकाल में तीसरे-चौथे स्थान पर रहने वाली भाजपा इस बार बड़ी भूमिका में नजर आ रही है। पार्टी ने लोकसभा चुनाव के सहयोगियों-रामविलास पासवान की लोजपा और रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा पर भरोसा तो किया ही है, विरोधी दलों के बागियों के रूप में नए दोस्त भी तलाशे हैं। कभी लालू यादव का दाहिना हाथ कहे जाने वाले पप्पू यादव ने अपनी अलग पार्टी बना ली है और उनका साथ भाजपा को है। नीतीश कुमार के विश्वासपात्र पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी राजग के साथ हैं। ऐसे में राजग को अगड़ी जातियों के अलावा यादवों के 14.4 प्रतिशत और दलित-महादलितों के 10-4.5 प्रतिशत वोटबैंक में सेंध की उम्मीद है। पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे और अमित शाह की संगठन क्षमता को भुनाने में पीछे नहीं रहने वाली। पीएम जिस रफ्तार से बिहार में रैलियां कर रहे हैं और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में अपने शब्दवाणों से विरोधियों को पस्त कर रहे हैं, उससे पिछले चुनाव में 91 सीटें हासिल करने वाली भाजपा को सीटों की संख्या में इजाफे का पूरा भरोसा है। हालांकि, दिल्ली चुनाव के बाद यह मोदी-शाह की जोड़ी का सबसे कठिन टैस्ट भी होने वाला है।
दो चुनावों में भाजपा के साथ लडऩे एवं सरकार बनाकर सीएम बनने वाले नीतीश कुमार की जदयू के लिए इम्तिहान सबसे कठिन है। यह नीतीश के शासन (सुशासन?) का भी एक इम्तिहान तो है ही, धुर विरोधी लालू से गलबहियां डालने के पैंतरे की परीक्षा भी। पिछले चुनाव में लगभग आधी सीटों (115) पर कब्जा जमाने वाली जदयू के लिए पिछले परफॉर्मैंस को दोहराना आसान नहीं होगा। भाजपा के खिलाफ दूसरे दलों के महागठबंधन की हवा भी सपा प्रमुख मुलायम ङ्क्षसह यादव निकाल चुके हैं। कुर्मी, कोइरी मतदाताओं के 5 प्रतिशत वोट के साथ उन्हें दलितों और महादलितों पर भरोसा है। पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की जीत के पीछे महिलाओं और निष्पक्ष मतदाताओं, युवाओं के समर्थन बड़ा फैक्टर था। नीतीश इस चुनाव में भी इस वोटबैंक को हथियाने का पूरा प्रयास करेंगे लेकिन बिहार में शराब की दुकानों की बढ़ती संख्या महिलाओं को जदयू से दूर कर सकती है। गठबंधन को बड़ी उम्मीद माई (एम-वाई) समीकरण से है। यही वजह है कि कभी एक-दूसरे को फूटी आंखों न सुहाने वाले लालू-नीतीश बड़े-छोटे भाई बने घूम रहे हैं। हालांकि, जीतन राम मांझी दलित वोटों का बड़ा हिस्सा काटकर नीतीश की आशाओं को धराशायी कर सकते हैं। जीत-हार की तस्वीर तो 8 नवम्बर को ही साफ होगी लेकिन यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि लालू की पार्टी राजद फायदे में रहने वाली है। पिछले चुनाव में केवल 22 सीटों पर सिमट आई कभी दो दशकों तक शासन करने वाली पार्टी के पास खोने को कुछ खास है भी नहीं। और यादवों का जनाधार तो है ही। 
नवोदय टाइम्स के 10 सितम्बर के अंक में प्रकाशित।
के लिए इस बार की लड़ाई पिछली बार से बिल्कुल अलग होगी। पहले जो सहयोगी थे, अब प्रतियोगी बने ताल ठोक रहे हैं। हमराही अब हमलावर हैं। चुनावी गीतों ने राज्य में हर संगीत को फीका कर रखा है तो पोस्टर वार का नया रूप भी यहां देखने को मिल रहा है। गांवों की चौपालों से लेकर शहर के चौराहों तक सिर्फ चुनावी माहौल दिखाई दे रहा है। आने वाले दिनों में यह लड़ाई और दिलचस्प होने वाली है।

बयानबाजी और बगावत
दोस्ती-दुश्मनी का यह खेल आखिरी नहीं है। भाजपा विरोधी महागठबंधन ने सीटों का एलान क्या किया, आपसी फूट उभरकर सामने आ गई। सपा प्रमुख ने गठबंधन की गांठ खोलते हुए सभी सीटों पर अलग से चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी। पहली बार मुलायम ने नीतीश के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल दिया हैै। इधर लालू यादव पर परिवारवाद का आरोप लगाते हुए विरोधी हमला कर रहे हैं तो जवाब देने खुद लालू के बेटे तेजस्वी को सामने आना पड़ा। महागठबंधन में अब नीतीश के खिलाफ बयान देकर लालू के सांसद तस्लीमुद्दीन ने भी मोर्चा खोल दिया है। अंदरूनी कलह से राजग भी अछूता नहीं। घटक के दो प्रमुख सहयोगी मांझी और पासवान दलित नेता के मुद्दे पर आमने-सामने हैं। इनकी सीटों की मांग भी भाजपा को परेशान कर सकती है।