शनिवार, 18 जुलाई 2015

सियासत की तस्वीर बन चमक खो रही मेट्रो


आरामदायक सफर और चाक-चौबंद व्यवस्था के लिए मशहूर दिल्ली मेट्रो आजकल अपनी अव्यवस्थाओं के चलते सुर्खियों में ज्यादा आ रही है। सटीक टाइमिंग, साफ-सुथरे स्टेशन व कोच तथा यात्रियों की सहयता के लिए तत्परता अब इंतजार, ऊब और अनिश्चितता में बदलती जा रही है।

दिल्ली के बाद मेट्रो का एनसीआर के शहरों में विस्तार तो हुआ है, लेकिन सुविधाओं में कमी आई है। सबसे खराब हालत ब्लू लाइन की है। आए दिन इस रूट पर किसी न किसी तकनीकी खराबी के चलते मेट्रो पर ब्रेक लगती रही है। 5-10 मिनट की देर तो आम बात हो गई है। एक-दो मौके तो ऐसे आए कि लोगों को आपातकालीन द्वार खोलकर बाहर आना पड़ा। पहले जहां मेट्रो परिसर में गंदगी ढंूढे नहीं मिलती थी, अब कोचों में भी पानी की खाली बोतलें और बिस्कुट-चिप्स के रैपर दिख जाते हैं। मेट्रो यात्रियों की आम धारण है कि श्रीधरन के कार्यकाल तक सबकुछ फिट एंड फाइन था। उनके हटते ही दिक्कतें शुरू हो गईं।

हालांकि, मेट्रो के मैलेपन की कुछ और वजहें हैं। दिल्ली की सरकार हो या पड़ोसी राज्य हरियाणा और उत्तर प्रदेश की, अपने विकास कार्यों की चमचमाती तस्वीर पेश करने के लिए नेता पहली घोषणा मेट्रो को लेकर करते रहे हैं। हालत यह है कि मेट्रो विस्तार का तीसरा प्लान पूरा भी नहीं हुआ है और चौथा तैयार हो चुका है। जाहिर है कि जल्दबाजी मेट्रो को नहीं सियासतदानों को है। मेट्रो रूट की घोषणा से प्रापर्टी की कीमतों में उछाल का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से किसे फायदा होता है-बताने की बात नहीं।

मेट्रो के बदरंग होते जाने के लिए यात्री भी कम जिम्मेदार नहीं है। मेट्रो में खाने-पीने, गंदगी फैलाने और फोटो खींचने पर रोक है, लेकिन ऐसा करते अक्सर लोगों को देखा जा सकता है। कार्रवाई का डर न हो तो नियम नहीं मानेंगे- इस मानसिकता से दिल्लीवालों को मुक्ति पानी होगी। मेट्रो हम सबके लिए है और यह साफ-सुथरी रहे इसकी जिम्मेदारी भी सबकी है।


नवोदय टाइम्स के 18 जुलाई के अंक में प्रकाशित।

‘शत्रु राग’ में खो न जाएं भाजपा के सुर


मुख्यमंत्री पद और सीटों की खींचतान के चलते बिहार में भाजपा का ‘मिशन 185’ मुश्किल में पड़ सकता है। पटना में वीरवार को परिवर्तन रथ को झंडी दिखाने के लिए आयोजित कार्यक्रम में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ घटक दलों के प्रमुखों को भी मंच पर जगह दी गई थी। संदेश था राजग की एकजुटता का, लेकिन इस संदेश पर संदेह पैदा कर रही थी बिहार के कुछ नेताओं खासकर शत्रुघ्न सिन्हा की अनुपस्थिति।

प्रधानमंत्री के दौरे से पहले बिहार में यह भाजपा का सबसे बड़ा कार्यक्रम था। शाह ने बड़े पैमान पर चुनाव प्रचार अभियान की औपचारिक शुरुआत की, लेकिन बारिश में जमे समर्थकों की निगाहें ‘बिहारी बाबू’ शत्रुघ्न सिन्हा को ढंूढती रही। अपने बागी तेवरों को लेकर सिन्हा आए दिन भाजपा नेतृत्व के लिए मुसीबत खड़ी करते रहे हैं। सिन्हा ने गांधी मैदान न आने का कारण साफ नहीं बताया, बल्कि अपने अंदाज में एक शेर का अंश जरूर कह दिया-‘वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमां।’ अगर इस शेर की अगली पंक्ति-‘हम अभी से क्या बताएं, क्या हमारे दिल में है’- को याद करें तो शत्रु भइया की मंशा समझी जा सकती है।
यह पहली बार नहीं है कि शत्रुघ्न सिन्हा ने पार्टी नेतृत्व के माथे पर बल ला दिए हों। हाल ही में लालू के जन्मदिन पर उन्हें शुभकामना देने उनके आवास पहुंच शत्रुघ्न ने सियासत में कई सवाल खड़े कर दिए थे। विधानपरिषद चुनाव में भाजपा की जीत के जश्न को वह न इतराने की नसीहत देकर फीका कर चुके हैं। परिवर्तन रथों पर अपनी तस्वीर न होने के लिए भी वह साफ शब्दों में नाराजगी जता चुके हैं।

भाजपा नेतृत्व ने साफ कर दिया है कि बिहार में सीएम पद के नेता की घोषणा चुनाव से पहले नहीं की जाएगी। शायद शीर्ष नेतृत्व भी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से वाकिफ है और चुनाव से पहले किसी दरार को उभरने से रोकने के लिए ही ऐसा फैसला किया गया है। दिल्ली में चुनाव से ऐन पहले किरण बेदी को सीएम प्रत्याशी घोषित करने का परिणाम भाजपा पहले ही देख चुकी है। शत्रुघ्न सिन्हा सीएम पद की घोषणा की मांग कई बार कर चुके हैं। आमतौर पर पटना आते-जाते रहने वाले सिन्हा काफी दिनों से वहां जमे हैं। वह लगातार स्थानीय नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं। पिछले दिनों वह राज्यसभा सांसद आरके सिन्हा से मिलने उनके आवास पर गए। माना जा रहा है कि वह कायस्थ नेताओं को एकजुट करने की मुहिम में जुटे हैं। अगर सिन्हा अपने को कायस्थ नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने में सफल रहे तो उनका पलड़ा भारी हो सकता है। बिहार में इस बार जब वोटों की लड़ाई दशमलव प्रतिशत तक पहुंच गई है तब कायस्थों के 1.5 प्रतिशत मत के साथ सिन्हा अपनी मंशा को लेकर मैदान में उतर सकते हैं। 
प्रदेश में भाजपा के दूसरे बड़े नेता सीपी ठाकुर भी ऐसी मांग कर चुके हैं। सिन्हा से एक कदम आगे बढ़ते हुए ठाकुर मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जता चुके हैं। पार्टी में अलग-अलग नेताओं के लिए भी दबे छिपे आवाजें उठती रही हैं। 
नवोदय टाइम्स के 18 जुलाई के अंक में प्रकाशित खबर।

बुधवार, 15 जुलाई 2015

निहितार्थ नीतीश-केजरीवाल मुलाकात के


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली आए तो थे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की इफ्तार की दावत में शरीक होने, लेकिन सियासी गलियारों में सुर्खियों में रहा उनका दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल से मिलना। नीतीश कुमार की राजनीति के अंदाज से वाकिफ लोग जानते हैं कि उनका कोई कदम अनायास नहीं होता। और न ही वह दिल्ली आने या मौके-बेमौके राजनीतिक मेल-मिलाप को पसंद करते हैं।
बिहार में दो-ढाई महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे केजरीवाल-नीतीश मुलाकात को लेकर भी अटकलों का बाजार गर्म है।
सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी से एक दिन पहले ही केजरीवाल ने भी दावत दी थी, लेकिन नीतीश उसमें शरीक नहीं थे। नीतीश जानते थे कि इफ्तार दावत में शिरकत उतनी अहमियत नहीं बटोर पाएगा जितनी ‘औपचारिक’ मुलाकात। सोनिया की पार्टी में शामिल होना नीतीश के लिए ज्यादा जरूरी था। वह भी तब जब कई वर्षों से इस मौके पर मौजूद रहने वाले कार्यक्रम से दूर ही रहने वाले थे। सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में हर साल मौजूद रहने और मीडिया अटेंशन पाने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और वामदलों के नेता इस बार आयोजन से दूरी ही बनाए रहे। तमाम अटकलों के बाद भी तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने भी दूरी ही रखी। हालांकि, उनके प्रतिनिधि के रूप में डेरेक ओ-ब्रायन भोज में पहुंचे और उन्हें जगह भी सोनिया के साथ ही मिली।
बिहार में कभी धुर विरोधी रहे लालू और नीतीश की पार्टी इस बार साथ चुनाव लडऩे वाली है। दोनों नेता भी यदाकदा एकजुटता का दंभ भरते रहते हैं, लेकिन लोग जानते हैं कि यह साथ कितना कारगर और गहरा है। दलों के विलय के समय ‘बड़ा भाई’ होने को लेकर शुरू हुई खींचतान किसी न किसी तरह बाद में नजर आती रही है। लालू और नीतीश दोनों इस कोशिश में हैं कि चुनाव के बाद उनका पलड़ा भारी हो और गठबंधन व सरकार पर परोक्ष रूप से अधिकार। नीतीश की केजरावाल से मुलाकात को भी इसी चश्मे से देखा जा रहा है। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का बिहार में बड़ा जानाधार भले ही न हो, लेकिन आप के समर्थक कम नहीं हैं। आप ने बिहार के तकरीबन सभी जिलों में अपने दफ्तर खोले हैं। नीतीश की मंशा है कि वह केजरीवाल के सबसे करीबी दोस्त के रूप में नजर आकर आप समर्थकों का विश्वास वोट के रूप में हासिल कर सकें। चाहे एसीबी विवाद हो या पूर्ण राज्य के दर्जे मांग केजरी के साथ खड़े होने वालों में नीतीश का नंबर पहला रहा है। दिल्ली में केजरीवाल को ऐतिहासिक और आशातीत सफलता दिलाने में पूर्वांचलियों खासकर बिहार के लोगों को बड़ा योगदान था। अगर केजरी के गुड गवर्नेंस और ईमानदारी की यही भावना बिहार में भी काम कर गई तो नीतीश के लिए राह आसान हो सकती है।
बिहार में इस बार वोट प्रतिशत नहीं बल्कि प्रतिशत के दशांस की लड़ाई है। नए सियासी समीकरणों ने जातीय समीकरण को उलट-पलट कर दिया है। दलित समुदाय की कुछ जातियों को महादलित का दर्जा देने का श्रेय नीतीश कुमार को जाता है, लेकिन हाल के दिनों में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी इसके बड़े नेता के रूप में उभरे हैं। पासवान और मांझी भाजपा के लिए एक और एक ग्यारह की तरह हैं। सीएम की कुर्सी छोड़ते समय मांझी ने इस बात को बार-बार रेखांकित किया था कि दलित होने के चलते उनका ‘अपमान’ किया जा रहा है। यादवों के एकमात्र मसीहा माने जाने वाले लालू यादव को उन्हीं की पार्टी के बागी पप्पू यादव चुनौती दे रहे हैं। मांझी और नीतीश दोनों ने अपनी अलग पार्टी बना ली है। लालू-नीतीश से महामुकाबले को तैयार भाजपा ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों को धार देना शुरू कर दिया है। भाजपा रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा और लोजपा के रामविलास पासवान के बूते दलित वोटों पर अपनी हिस्सेदारी मजबूत मान रही है। लेकिन यादव और मुसलमान मतों के लिए उनके पास कोई खास चेहरा नहीं है। ‘माई’ वोटों पर तो राजद-जदयू गठबंधन अपना स्वभाविक अधिकार मान रहा था, लेकिन बागी पप्पू और मांझी से खतरा भी कम नहीं। ऐसी परिस्थितियों में बिहार की लड़ाई दलों के लिए जितनी कठिन होने वाली है, वोटरों के लिए उतनी ही रोचक।
हालांकि, केजरीवाल का रवैया अलग रहा है। उन्होंने नीतीश से मित्रता के लिए अपने स्तर पर खास गर्मजोशी अब तक तो नहीं दिखाई है। ऐसे में यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि नीतीश का सुशासन और केजरीवाल की ईमानदारी की मिलीजुली छवि, अलग बनती है तो, बिहार चुनाव में कितना कारगर होगी।

नवोदय टाइम्स में 15 जुलाई के अंक में पहले पेज पर प्रकाशित खबर।