बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली आए तो थे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की इफ्तार की दावत में शरीक होने, लेकिन सियासी गलियारों में सुर्खियों में रहा उनका दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल से मिलना। नीतीश कुमार की राजनीति के अंदाज से वाकिफ लोग जानते हैं कि उनका कोई कदम अनायास नहीं होता। और न ही वह दिल्ली आने या मौके-बेमौके राजनीतिक मेल-मिलाप को पसंद करते हैं।
बिहार में दो-ढाई महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे केजरीवाल-नीतीश मुलाकात को लेकर भी अटकलों का बाजार गर्म है।
सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी से एक दिन पहले ही केजरीवाल ने भी दावत दी थी, लेकिन नीतीश उसमें शरीक नहीं थे। नीतीश जानते थे कि इफ्तार दावत में शिरकत उतनी अहमियत नहीं बटोर पाएगा जितनी ‘औपचारिक’ मुलाकात। सोनिया की पार्टी में शामिल होना नीतीश के लिए ज्यादा जरूरी था। वह भी तब जब कई वर्षों से इस मौके पर मौजूद रहने वाले कार्यक्रम से दूर ही रहने वाले थे। सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में हर साल मौजूद रहने और मीडिया अटेंशन पाने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और वामदलों के नेता इस बार आयोजन से दूरी ही बनाए रहे। तमाम अटकलों के बाद भी तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने भी दूरी ही रखी। हालांकि, उनके प्रतिनिधि के रूप में डेरेक ओ-ब्रायन भोज में पहुंचे और उन्हें जगह भी सोनिया के साथ ही मिली।
बिहार में कभी धुर विरोधी रहे लालू और नीतीश की पार्टी इस बार साथ चुनाव लडऩे वाली है। दोनों नेता भी यदाकदा एकजुटता का दंभ भरते रहते हैं, लेकिन लोग जानते हैं कि यह साथ कितना कारगर और गहरा है। दलों के विलय के समय ‘बड़ा भाई’ होने को लेकर शुरू हुई खींचतान किसी न किसी तरह बाद में नजर आती रही है। लालू और नीतीश दोनों इस कोशिश में हैं कि चुनाव के बाद उनका पलड़ा भारी हो और गठबंधन व सरकार पर परोक्ष रूप से अधिकार। नीतीश की केजरावाल से मुलाकात को भी इसी चश्मे से देखा जा रहा है। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का बिहार में बड़ा जानाधार भले ही न हो, लेकिन आप के समर्थक कम नहीं हैं। आप ने बिहार के तकरीबन सभी जिलों में अपने दफ्तर खोले हैं। नीतीश की मंशा है कि वह केजरीवाल के सबसे करीबी दोस्त के रूप में नजर आकर आप समर्थकों का विश्वास वोट के रूप में हासिल कर सकें। चाहे एसीबी विवाद हो या पूर्ण राज्य के दर्जे मांग केजरी के साथ खड़े होने वालों में नीतीश का नंबर पहला रहा है। दिल्ली में केजरीवाल को ऐतिहासिक और आशातीत सफलता दिलाने में पूर्वांचलियों खासकर बिहार के लोगों को बड़ा योगदान था। अगर केजरी के गुड गवर्नेंस और ईमानदारी की यही भावना बिहार में भी काम कर गई तो नीतीश के लिए राह आसान हो सकती है।
बिहार में इस बार वोट प्रतिशत नहीं बल्कि प्रतिशत के दशांस की लड़ाई है। नए सियासी समीकरणों ने जातीय समीकरण को उलट-पलट कर दिया है। दलित समुदाय की कुछ जातियों को महादलित का दर्जा देने का श्रेय नीतीश कुमार को जाता है, लेकिन हाल के दिनों में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी इसके बड़े नेता के रूप में उभरे हैं। पासवान और मांझी भाजपा के लिए एक और एक ग्यारह की तरह हैं। सीएम की कुर्सी छोड़ते समय मांझी ने इस बात को बार-बार रेखांकित किया था कि दलित होने के चलते उनका ‘अपमान’ किया जा रहा है। यादवों के एकमात्र मसीहा माने जाने वाले लालू यादव को उन्हीं की पार्टी के बागी पप्पू यादव चुनौती दे रहे हैं। मांझी और नीतीश दोनों ने अपनी अलग पार्टी बना ली है। लालू-नीतीश से महामुकाबले को तैयार भाजपा ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों को धार देना शुरू कर दिया है। भाजपा रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा और लोजपा के रामविलास पासवान के बूते दलित वोटों पर अपनी हिस्सेदारी मजबूत मान रही है। लेकिन यादव और मुसलमान मतों के लिए उनके पास कोई खास चेहरा नहीं है। ‘माई’ वोटों पर तो राजद-जदयू गठबंधन अपना स्वभाविक अधिकार मान रहा था, लेकिन बागी पप्पू और मांझी से खतरा भी कम नहीं। ऐसी परिस्थितियों में बिहार की लड़ाई दलों के लिए जितनी कठिन होने वाली है, वोटरों के लिए उतनी ही रोचक।
हालांकि, केजरीवाल का रवैया अलग रहा है। उन्होंने नीतीश से मित्रता के लिए अपने स्तर पर खास गर्मजोशी अब तक तो नहीं दिखाई है। ऐसे में यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि नीतीश का सुशासन और केजरीवाल की ईमानदारी की मिलीजुली छवि, अलग बनती है तो, बिहार चुनाव में कितना कारगर होगी।
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| नवोदय टाइम्स में 15 जुलाई के अंक में पहले पेज पर प्रकाशित खबर। |