रविवार, 31 अगस्त 2014

बिहार: शिक्षा के कुछ सवाल

नवोदय टाइम्स में 1 सितंबर 2014 को प्रकाशित।

ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में रैगिंग के बाद बिहार के सहकारिता मंत्री के बेटे की जान देने की कोशिश की घटना दुखद तो है ही, चिंता उत्पन्न करने वाली भी है। इस घटना के बाद से तथाकथित बड़े स्कूलों में छात्रों की स्थिति को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। छात्र का इलाज दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में चल रहा है। परिवार बेहाल है। और इन सबके बीच स्कूल प्रबंधन की लापरवाही (?) और घटनाक्रम को लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी चल रहे हैं। इस घटनाक्रम के पीछे जो मूल प्रश्न है, उसकी पड़ताल भी जरूरी है। सबसे बड़ा सवाल बिहार की शिक्षा व्यवस्था और पढ़ाई के स्तर को लेकर है।
आज बिहार के किसी संपन्न परिवार का बच्चा अपने शहर-गांव में नहीं पढ़ता। अभिभावक बच्चों को बेहतर शिक्षा के लिए बाहर के राज्यों में भेजते हैं। बच्चे बड़े हों तो घर के बाहर के माहौल में एडजस्ट कर भी लेते हैं, लेकिन कच्ची उम्र के बच्चों के साथ कई दिक्कतें पेश आती हैं। पढऩे-बढऩे और खेलने-कूदने की उम्र में क्यों बच्चों को माता-पिता के साये से दूर कर दिया जाता है। बिहार में शिक्षा के स्तर पर ध्यान दें तो जवाब भी खुद-ब-खुद मिल जाएंगे।
बिहार में आबादी के हिसाब से स्कूलों की संख्या काफी कम है। गरीबी और परिवार की अशिक्षा के कारण बच्चे स्कूलों में नहीं भेजे जाते। वर्ष 2006 में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य के करीब 13 फीसदी बच्चों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। हाल के दिनों में इस आंकड़े में कमी आई है, लेकिन सरकारी आंकड़ों और जमीनी हालात में अंतर क्या होता है, यह बताने की जरूरत नहीं। जो बच्चे स्कूल आते भी हैं लेकिन वहां उनका कितना विकास होता है या हो सकता है। सरकारी स्कूलों में तो पढ़ाई का भगवान ही मालिक है। पाठशाला की देहरी पर जिनके ऊपर पढ़ाई का जिम्मा है उनकी शिक्षा का स्तर खुद सवालों में है। नेशनल स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वे में सामने आया कि प्राथमिक विद्यालयों के 21 फीसदी शिक्षक खुद मैट्रिक पास नहीं हैं। अब ऐसे शिक्षक बच्चों को क्या सिखाएंगे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए गांव-देहात से लेकर शहरों की तंग गलियों में प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं। मोटी फीस और टाई-कोट के ड्रेस कोड वाले शहरी प्राइवेट स्कूलों में एक्सट्रा करिकुलर एक्टिविटी और टीचर्स-डे, पेरेंट्स-डे आदि तो
खूब मनाए जाते हैं। और जो सबसे जरूरी है पढ़ाई- उसके लिए ट्शूशन है न। स्कूलों के टीचर्स ही ट्यूशन और कोचिंग के धंधे में लिप्त हैं और दोहरी फीस भरने के बाद भी बच्चों की शिक्षा अभिभावकों को ही पूरी करानी पड़ती है। कस्बों और गांवों के प्राइवेट स्कूलों की तो पूछिए ही नहीं। जो व्यक्ति कहीं कोई काम नहीं कर सका वह अपने जैसे ही कुछ लोगों को इकट्ठा कर स्कूल खोल लेता है। स्कूलों में टीचरों के नाम पर बेरोजगार और जरूरतमंदों को भर्ती कर उन्हें चंद रुपये देकर काम चला लिया जाता है। प्राइवेट स्कूलों का पूरा शास्त्र और अर्थशास्त्र मुनाफे के मनोविज्ञान पर चलता है।

टैलेंट और धन का पलायन : बिहार से बड़ी संख्या में छात्र स्नातक स्तर पर पलायन कर जाते हैं। इंजीनियरिंग, मेडिकल से लेकर मैनेजमेंट और अन्य रोजगारपरक पढ़ाई के लिए प्रति वर्ष करीब एक लाख छात्र दिल्ली, कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान का रुख कर लेते हैं। इन राज्यों के शिक्षण संस्थान भी ऐसे छात्रों पर निगाहें टिकाए रखते हैं। कोचिंग, ट्यूशन और तैयारी के नाम पर छात्रों से रकम ऐंठने का कारोबार शुरू हो जाता है। हर साल सैकड़ों छात्र एडमिशन के नाम पर ठगी का शिकार बनते हैं। अगर एक छात्र का मासिक खर्च 10 हजार रुपया भी मान लें तो हर साल बिहार से करीब 1200 करोड़ रुपया दूसरे राज्यों में चला जाता है।
देश की प्रशासनिक सेवाओं में सबसे अधिक बिहार के छात्र सफल होते हैं। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता परीक्षाओं से लेकर रेलवे और एसएससी जैसी परीक्षाओं में सफलता हासिल करने वालों में बिहारियों का पहला स्थान है, लेकिन क्या ये सारे छात्र बिहार में रहकर पढ़ाई करते हैं। नि:संदेह नहीं। क्या ऐसे में सरकारों का यह दायित्व नहीं है कि वह राज्य की प्रतिभाओं को अपने घर में फलने-फूलने और विकसित होकर सफलता की बुलंदियों पर पहुंचने का मौका दें। इसके लिए जरूरी है साफ नीयत और दृढ़ संकल्प की, लेकिन वोट बैंक की राजनीति करने वालों की इसकी फिक्र कहां।

सियासत का ग्रहण : प्राचीन काल में शिक्षा की रोशनी से पूरे विश्व को रोशन करने वाले बिहार की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक समय में सियासत का ग्रहण लील रहा है। अस्सी के दशक में जगन्नाथ मिश्र ने उर्दू को राजभाषा का दर्जा दे दिया। इस कदम से वह मुस्लिमों के बीच हीरो तो बन गए, कई क्षेत्रीय भाषाएं पीछे रह गईं। लालू प्रसाद यादव सत्ता में आए तो चरवाहा विद्यालय की परिकल्पना साकार हुई। लालू ने स्कलों को ही छात्रों तक पहुंचा दिया और गांवों में गाय-भैंस चराने वाले, मछली पकडऩे वाले या किसी अन्य माध्यम से आजीविका अर्जित करने में परिवार की मदद करने वाले बच्चों के लिए तालीम के दरवाजे खुले, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और लालफीताशाही के कारण यह योजना भी ठंडे बस्ते में चली गई। हां, इस दौरान गांवों में स्कूल बनाने के नाम पर नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों ने खूब चांदी काटी। नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर से शिक्षा को लेकर उम्मीदें जागीं। नीतीश ने पंचायत स्तर पर शिक्षा मित्रों की नियुक्ति कर अध्यापकों के रिक्त पदों को भरने की कोशिश की। लेकिन ये नियुक्तियां भी विवादों से बच नहीं सकीं। धांधली और अनियमितताओं के सहारे नौकरी पाने वाले की शिक्षक ढंग से संडे, मंडे भी नहीं लिख पाते।
आप नॉस्टैलजिक हों तो जपते रहिए नालंदा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी का नाम, लेकिन आज के दौर में कोई मानेगा नहीं कि ये स्थान कभी वाकई बिहार में ही थे।

शनिवार, 16 अगस्त 2014

सोशल मीडिया कितना सोशल??



क्या कभी सोशल मीडिया के बारे में सोचा है? मसलन, यह क्यों बना और और किस सिद्धांत पर काम करता है? लैपटॉप-कंप्यूटर से लेकर स्मार्टफोन तक के जरिये फेसबुक-ट्विटर से जुड़े रहने वाले आप सोच रहे होंगे कि यह कितना फालतू सवाल पूछा गया है। आज दुनिया संचार के हजारहां माध्यमों का इस्तेमाल पता नहीं किन-किन सूचनाओं और भावनाओं के संप्रेषण के लिए कर रही है और आप हैं कि जड़ें ढूंढने में लगे हैं।
पूरा का पूरा सोशल मीडिया तुलनात्मक उत्कृष्टता और विशेषज्ञता के सिद्धांत पर काम करता है। सालों पहले आया एक डिटर्जेंट का विज्ञापन याद तो होगा आपको। एक महिला दूसरी को देखकर हतप्रभ होती है और कहती है ‘उसकी साड़ी, मेरी साड़ी से सफेद कैसे?’ इसी सवाल में छिपा है सोशल मीडिया का सच। आज के दौर में हर इंसान इसी फितरत में लगा है कि वह कैसे साबित करे कि वह दूसरों से सुंदर, अच्छा, धनवान, बलवान और ज्ञानवान है। यही भावना उसे सोशल मीडिया पर एक्टिव बनाती है। आप रोज देखते होंगे कि लोग अपने जीवन की छोटी से छोटी घटना को सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। एकसाथ सैकड़ों लोगों तक अपने बारे में जानकारी पहुंचाने का यह बेशक सशक्त माध्यम हो, लेकिन विचार इस पर भी करना होगा कि सूचनाएं कैसी हों। आज मैं पार्क में गया था, एज्वाइंग आइसक्रीम विद माई फैमिली, इट इज रेनिंग इन माई सिटी, ब्राट ए न्यू स्कार्फ वगैरह-वगैरह। सवाल यह कि इन सूचनाओं या जानकारियों का किसी दूसरे व्यक्ति के लिए क्या कोई मतलब होता है। फिर भी लोग लाइक करते हैं और एक से बढक़र एक सतही और सस्ते कमेंट भी लिखते हैं। क्या यही सामाजिकता है और इसी रूप में लोग अपनों के साथ करीबी महसूस करते हैं। सोशल मीडिया पर देशकाल को लेकर भी हर व्यक्ति अपनी राय जाहिर कर रहा होता है, उस पर बहसें होती हैं, कुछ अच्छी-बुरी बातें कही जाती हैं, लेकिन क्या यह सच में होता है। मेरी यह स्पष्ट राय है कि लोग केवल अपने को या अपनी बातों को साबित कराने की चेष्टा कर रहे होते हैं, क्योंकि यह उनको ‘मेरी साड़ी ज्यादा सफेद’ होने की संतुष्टि प्रदान करता है। बहुत कम ही मौके होते हैं जब कोई अपनी सच्ची भावना व्यक्त करता है और कोई मित्र उसे शिद्दत से महसूस करता है। (याद रखें कि सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर सभी फ्रेंड होते हैं।) अगर किसी ने कोई गंभीर बात कही भी तो कमेंटों और शेयरों के चक्कर में उसकी गंभीरता की भद्द पिटना तय है। तो क्या किसी काम का नहीं है सोशल मीडिया???
सोशल मीडिया में कनेक्शन की गजब ताकत है। हमें याद रखना होगा कि 16 दिसंबर की घटना के बाद दिल्ली की सडक़ों पर युवाओं का हुजूम यूं ही नहीं उमड़ा था। दर्द और आक्रोश से भरे मन को एकजुट करने में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी। देश-दुनिया में चर्चित अन्ना का आंदोलन हो या केजरीवाल का सियासी सफर- सोशल मीडिया की ताकत से इनकार नहीं किया जा सकता। यह इस माध्यम का सबसे सकारात्मक उपयोग था, लेकिन आम जीवन में हम इसका कैसे और किन प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल करते हैं। भारत जैसे देश में सोशल मीडिया की यह ताकत एक खतरे का संकेत भी है। हाल ही में हमने देखा कि उत्तर प्रदेश में हुई कुछ सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के पीछे जो अफवाह काम कर रही थी वह सोशल मीडिया के जरिये फैलाई गई थी। किसी ने एक सुनी-सुनाई बात पोस्ट कर दी और सैकड़ों-हजारों लोगों ने बिना सोचे-समझे उसे साझा कर दिया। जहां यह होड़ मची हो कि सूचनाओं के मामले में भी मेरी गति दूसरों के मुकाबले अधिक है, वहां सोचने-समझने की फुरसत किसे है? सोच-विचार में दो मिनट भी देर हुई तो अपने ‘मित्रों’ से पीछे छूट जाएंगे। नतीजा कितना गंभीर निकला यह हम सब जानते हैं।
दूसरी समस्या है सरकारी और विधायी स्तर पर। भारत में इंटरनेट और सोशल मीडिया को लेकर स्पष्ट और ठोस कानून बनाए जाने की मांग तो उठ रही है, लेकिन इस दिशा में प्रयास की गति काफी कम है। समाज के ताने-बाने को नुकसान पहुंचने या अपने स्वार्थ के लिए अफवाहें फैलाने वाले भी जानते हैं कि इस माध्यम का किस तरह से बेजा इस्तेमाल कर वह अपने मंसूबों में कामयाब होंगे और कानून के फंदे से बचे भी रह सकेंगे। साइबर लॉ के बारे में हमारे देश में जागरूकता शून्य के आसपास ही है। और जिस पुलिस को साइबर अपराध की जांच का जिम्मा दिया जाता है उसकी तकनीकी जानकारी का स्तर किसी से छिपा नहीं है। महानगरों में तो पुलिस ने साइबर सेल स्थापित भी किए हैं, लेकिन छोटे कस्बों और गांवों तक पैर पसार चुके इंटरनेट के जरिये अपराध को रोकने की कोई संरचना हम नहीं बना पाए हैं। अगर यही रफ्तार रही तो अगले कुछ दशकों तक इसकी संभावना भी नहीं है। तब तक कानूूनी तौर पर नियमन की बात तो आप भूल ही जाएं। ऐसे में इंटरनेट से लेकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों के पास स्वनियमन का ही रास्ता बचता है। हमें खुद अपनी सुरक्षा और वैयक्तिकता को बचाने के लिए सजग होना होगा।