लीक-लीक कायर चलें, लीकहिं चले कपूत।
लीक छोड़ तीनों चलें - शायर सिंह सपूत।।
यह दोहा तो काफी पहले से प्रचलित है, लेकिन लगता है मानो निदा फाजली के लिए ही कहा गया था। निदा साहब सच्चे मायनों में लीक को तोडऩे और अपनी अलग राह बनाने वाले शायर थे। वैसे तो शायरी इन्हें विरासत में मिली थी। इनके पिता भी शायर थे और उनका एक काव्य संग्रह भी आया था, लेकिन निदा का कलाम किसी एक रवायत में बंधा नहीं था। इनकी लेखनी के विशाल कैनवास में गजल से लेकर दोहे और फिल्मी गीत और यहां तक कि अतुकांत कविता भी थी।
यह निदा साहब का ही फन था कि मात्राओं में बंधे शेर और दोहे लिखने वाला कविताएं भी उसी संजीदगी और सामर्थ्य साथ कहता था और सुनने वाले उसी शि
द्दत से शाबाशी दिया करते थे। निदा साहब हर मायने में और हर तरह से लीक तोडऩे वाले थे। उर्दू शायरी को इश्क, माशूका और मय से बाहर निकालकर मां और बच्चे से लेकर चिमटा-चूल्हा तक लाने में निदा फाजली का अलग और बुलंद मुकाम है। फाजली एक बार पाकिस्तान गए थे तो वहां मुशायरे में उन्होंने शेर कहा था-
घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
इस शेर को जितनी दाद मिली थी उतने ही सवाल भी निदा से किए गए। कुछ लोगों ने पूछा कि क्या वे किसी बच्चे को खुदा से बड़ा समझते हैं? निदा ने जवाब दिया-मैं केवल इतना जानता हूं कि मस्जिद इंसान के हाथों बनाते हैं, जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है। निदा साहब का ये बेखौफ और बेलौस अंदाज शुरुआत के दिनों से ही रहा। देश के बंटवारे के बाद उनके पिता ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया लेकिन ये निदा की शख्शियत की बुलंदी और मिट्टी से मुहब्बत ही थी कि उन्होंने हिंदोस्तान में ही रहने का फैसला किया। पिता के इंतकाल के बाद निदा उनकी कब्र पर फातेहा पढऩे तो नहीं गए, लेकिन जो कविता लिखी वह एक बेटे की पिता के प्रति भावनाओं को समझने के लिए काफी है।
फाजली के लिए इंसान और इंसानी जज्बातों की जितनी कीमत थी, उतनी किसी और शय की नहीं। सियासत और मजहब की दीवारों को वह हमेशा इंसानी रिश्तों के लिए गैरजररूरी मानते थे और इसके खिलाफ अपनी भावनाएं शेर के रूप में व्यक्त करते रहे। उनके लिए हिन्दू भी अपने थे, मुसलमान भी, हिंदी भी अपनी थी, उर्दू भी। जो अदब उन्होंने लिखा उसमें सत्ता, सियासत और सरमाएदारी की कोई परवाह नहीं की और जरूरत पडऩे पर मुखालफत से भी नहीं चूके।
सबकी पूजा एक सी, अलग अलग है रीत
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत
पूजा घर में मूर्ति, मीरा के संग श्याम,
जिसकी जितनी चाकरी, उतने उसके दाम
चाहे गीता बांचिए, या पढि़ए कुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान
सभी धर्मों की समान आलोचना के लिए वैसे तो जेहन में सबसे पहला नाम कबीर का आता है, लेकिन आधुनिक समय में कबीर की इस परंपरा का कोई सच्चा वाहक था तो वे निदा फाजली ही थे।
निदा की भाषा न तो खालिस उर्दू थी और न ही शुद्ध हिंदी- उनकी भाषा थी हिंदुस्तानी। आम फहम की भाषा-बोली। निदा की रचनाएं आम लोगों के लिए थीं और इसीलिए उनकी भाषा में थीं। निदा को शायरी की प्रेरणा सूरदास के भजनों से मिली। कहा जाता है कि एक सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजर रहे थे। वहां उन्होंने किसी को सूरदास का गाते सुना। इसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियों का विरह वर्णन था। निदा को लगा कि उनके अंदर दबा सागर बांध तोड़ कर निकल पड़ा है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फरीद आदि को पढ़ा। उनसे प्रेरित होकर सरल-सपाट शब्दों में लिखना सीखा।
निदा फाजली अब शरीर के साथ हमारे बीच नहीं रहे लेकिन अपनी बेजोड़ शायरी और कभी ना भुलाए जा सकने वाले गीतों-दोहों की बदौलत वह हमारे दिलों में रहेंगे। क्योंकि शायर मरता नहीं अपने शब्दों की बदौलत सदा हमारे साथ, हमारे पास होता है।
लीक छोड़ तीनों चलें - शायर सिंह सपूत।।
यह दोहा तो काफी पहले से प्रचलित है, लेकिन लगता है मानो निदा फाजली के लिए ही कहा गया था। निदा साहब सच्चे मायनों में लीक को तोडऩे और अपनी अलग राह बनाने वाले शायर थे। वैसे तो शायरी इन्हें विरासत में मिली थी। इनके पिता भी शायर थे और उनका एक काव्य संग्रह भी आया था, लेकिन निदा का कलाम किसी एक रवायत में बंधा नहीं था। इनकी लेखनी के विशाल कैनवास में गजल से लेकर दोहे और फिल्मी गीत और यहां तक कि अतुकांत कविता भी थी।
यह निदा साहब का ही फन था कि मात्राओं में बंधे शेर और दोहे लिखने वाला कविताएं भी उसी संजीदगी और सामर्थ्य साथ कहता था और सुनने वाले उसी शि
द्दत से शाबाशी दिया करते थे। निदा साहब हर मायने में और हर तरह से लीक तोडऩे वाले थे। उर्दू शायरी को इश्क, माशूका और मय से बाहर निकालकर मां और बच्चे से लेकर चिमटा-चूल्हा तक लाने में निदा फाजली का अलग और बुलंद मुकाम है। फाजली एक बार पाकिस्तान गए थे तो वहां मुशायरे में उन्होंने शेर कहा था-
घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
इस शेर को जितनी दाद मिली थी उतने ही सवाल भी निदा से किए गए। कुछ लोगों ने पूछा कि क्या वे किसी बच्चे को खुदा से बड़ा समझते हैं? निदा ने जवाब दिया-मैं केवल इतना जानता हूं कि मस्जिद इंसान के हाथों बनाते हैं, जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है। निदा साहब का ये बेखौफ और बेलौस अंदाज शुरुआत के दिनों से ही रहा। देश के बंटवारे के बाद उनके पिता ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया लेकिन ये निदा की शख्शियत की बुलंदी और मिट्टी से मुहब्बत ही थी कि उन्होंने हिंदोस्तान में ही रहने का फैसला किया। पिता के इंतकाल के बाद निदा उनकी कब्र पर फातेहा पढऩे तो नहीं गए, लेकिन जो कविता लिखी वह एक बेटे की पिता के प्रति भावनाओं को समझने के लिए काफी है।
फाजली के लिए इंसान और इंसानी जज्बातों की जितनी कीमत थी, उतनी किसी और शय की नहीं। सियासत और मजहब की दीवारों को वह हमेशा इंसानी रिश्तों के लिए गैरजररूरी मानते थे और इसके खिलाफ अपनी भावनाएं शेर के रूप में व्यक्त करते रहे। उनके लिए हिन्दू भी अपने थे, मुसलमान भी, हिंदी भी अपनी थी, उर्दू भी। जो अदब उन्होंने लिखा उसमें सत्ता, सियासत और सरमाएदारी की कोई परवाह नहीं की और जरूरत पडऩे पर मुखालफत से भी नहीं चूके।
सबकी पूजा एक सी, अलग अलग है रीत
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत
पूजा घर में मूर्ति, मीरा के संग श्याम,
जिसकी जितनी चाकरी, उतने उसके दाम
चाहे गीता बांचिए, या पढि़ए कुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान
सभी धर्मों की समान आलोचना के लिए वैसे तो जेहन में सबसे पहला नाम कबीर का आता है, लेकिन आधुनिक समय में कबीर की इस परंपरा का कोई सच्चा वाहक था तो वे निदा फाजली ही थे।
निदा की भाषा न तो खालिस उर्दू थी और न ही शुद्ध हिंदी- उनकी भाषा थी हिंदुस्तानी। आम फहम की भाषा-बोली। निदा की रचनाएं आम लोगों के लिए थीं और इसीलिए उनकी भाषा में थीं। निदा को शायरी की प्रेरणा सूरदास के भजनों से मिली। कहा जाता है कि एक सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजर रहे थे। वहां उन्होंने किसी को सूरदास का गाते सुना। इसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियों का विरह वर्णन था। निदा को लगा कि उनके अंदर दबा सागर बांध तोड़ कर निकल पड़ा है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फरीद आदि को पढ़ा। उनसे प्रेरित होकर सरल-सपाट शब्दों में लिखना सीखा।
निदा फाजली अब शरीर के साथ हमारे बीच नहीं रहे लेकिन अपनी बेजोड़ शायरी और कभी ना भुलाए जा सकने वाले गीतों-दोहों की बदौलत वह हमारे दिलों में रहेंगे। क्योंकि शायर मरता नहीं अपने शब्दों की बदौलत सदा हमारे साथ, हमारे पास होता है।
