सोमवार, 10 दिसंबर 2018

हाशिये के हिंदुस्तान का केंद्रीय चेहरा थे ओम


ओम पुरी के साथ सुपर स्टार, मेगा स्टार या ऐसी ही कोई उपाधि या उपनाम तो नहीं जुड़ा था, लेकिन भारतीय सिनेमा और सिनेप्रेमियों के मन में उनके लिए जो स्थान है वह किसी अन्य संबोधन का मोहताज भी नहीं। ओम बड़े कलाकार थे, सच्चे कलाकार थे। नायक-नायिका के रूमानी अफसानों और कभी-कभी सामाजिक समस्याओं को छूकर निकल जाने वाली फिल्मों के चलन के बीच ओमुपरी जैसे अत्यंत ही साधारण या सामान्य नाक-नक्श वाले अभिनेता की स्वीकार्यता और प्रशंसा फिल्मों की लेकर बदलती दिशा और दर्शकों के गंभीर जुड़ाव का द्योतक थी। फिर अपनी मेहनत और शत्-प्रतिशत से कम पर समझौता नहीं करने की जिद ने ओम को हाशिये के हिंदुस्तान का केंद्रीय चेहरा बना दिया।

मनोरंजन के साथ-साथ फिल्में काफी पहले से समाज के हर अक्स का आईना बनने की कोशिश करती रही हैं। सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे फिल्मकार नए शिल्प के साथ सामाजिक यथार्थ को गढ़ते रहे थे। क्षेत्रीय भाषाओं में भी नए प्रतिमान स्थापित हो रहे थे, लेकिन मुख्यधारा का सिनेमा व्यावसायिक उद्देश्यों के साथ केवल मनोरंजन पर केंद्रित होता जा रहा था। फिर, श्याम बेनेगल और पहलाज निहलानी जैसे फिल्मकारों ने अस्सी के दशक में हिन्दी सिनेमा को एक सीधी पटरी के आसान सफर से सच्चाई की कठोर जमीन पर उतारना शुरू किया। यही वह वक्त था जब ओम पुरी फिल्मों में अपनी पहचान बनाने के लिए कोशिश कर रहे थे। फिल्में अब सामाजिक विसंगतियों एवं व्यवस्था के विद्रूप को उसके पूरे नंगेपन में उजागर कर रही थी और साथ ही उनकी आंखों में आंखें डालकर चुनौती भी दे रही थी। इसके बाद तो हर फिल्म के साथ नए प्रतिमान गढ़े जाने लगे, नए कथ्य और शिल्प के साथ बेमिसाल चरित्रों से दर्शकों का परिचय हुआ। ओम पुरी ने अपने फिल्मी सफर की शुरुआत मराठी नाटक पर आधारित फिल्म 'घासीराम कोतवाल' से की थी। लेकिन जिस फिल्म ने उन्हें पहचान दिलाई वह थी 1980 में आई 'आक्रोश'। मजदूर लाहन्यिा भीखू के इस किरदार में ओम ऐसे घुलमिल गए कि कोई भी चरित्र एवं अभिनेता को अलग करके देख ही नहीं सकता। लाहन्यिा के रूप में उनकी आवाज सिर्फ दो बार फिल्म में है, लेकिन उनके मौन का आक्रोश लोगों के दिल में उतर गया। 'विजेता' (1982), 'आरोहण' (1982), 'अर्धसत्य' (1983), 'नासूर' (1985), 'माचिस' (1996) के साथ प्रशंसा और पुरस्कारों की झड़ी लग गई। ओम पुरी ने जिस तरह की फिल्म की वैसे ही चरित्र को सिनेमा के पर्दे पर उतार दिया। व्यावसायिक फिल्मों में भी अपने अभिनय और दमदार आवाज की बदौलत नई ऊंचाइयों को छुआ। नरसिम्हा (1991) में 'बाप जी' के किरदार को कौन भूल सकता है। कॉमेडी में ओम पुरी का जलवा अलग ही निखार पाता था। जाने भी दो यारों जैसी चर्चित फिल्म का बिल्डर अहूजा हो या चाची 420 का बनवारी लाल पांडेय, मालामाल वीकली का बल्लू या हेराफेरी का खडग़ सिंह, हर भूमिका में ओम पुरी की भूमिका अलग और यादगार रही। ओम पुरी एक तरह के चरित्र में भी अलग अभिनय करने का माद्दा रखते थे। उन्होंने कई फिल्मों में पुलिस अधिकारी की भूमिका की, लेकिन अर्धसत्य का पुलिस अधिकारी, देव, द्रोहकाल, गुप्त, प्यार तो होना ही था, और फर्ज का अधिकारी कभी एक जैसा नहीं लगा। रेखाएं खींचकर भविष्यवाणी करने वाला मकबूल का इंस्पेक्टर पंडित तो अलग ही ऊंचाई का चरित्र था।

उन्होंने गांधी, ज्वैल इन द क्राउन, सिटी ऑफ जॉय, माई सन द फैनेटिक जैसी अंग्रेजी फिल्मों में काम किया। 1999 में फिल्म ईस्ट इज ईस्ट में एक पाकिस्तानी के किरदार में खूब वाहवाही बटोरी। उन्होंने पाकिस्तानी फिल्मों में भी काम किया था। उन चंद कलाकारों में से थे जिन्हें भारत और ब्रिटेन दोनों सरकारों के उच्च पुरस्कार मिले। 1990 में उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्म श्री मिला तो 2004 में ब्रिटिश फिल्मों में योगदान के लिए ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश अंपायर से नवाजा गया। कई फिल्म फेस्टिवलों में भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार उन्हें मिला। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ओम पुरी अभिनय का स्कूल थे। उन्होंने कई पीढिय़ों के साथ काम किया और उन्हें अभिनय की बारीकियां सिखाई। ओम पुरी का फिल्म इंडस्ट्री में कोई गॉडफादर नहीं था, लेकिन अपनी प्रतिभा और मेहनत की बदौलत एक-एक सीढ़ी चढ़कर उन्होंने अपना अलग मुकाम हासिल किया था। कभी तंगहाली में ढाबे पर नौकरी करने वाले ओम को जीवन ने भी काफी पहाड़े सिखाए थे और यही कारण था कि निजी जीवन में भी वह सही को सही या गलत को गलत कहने का साहस रखते थे। देश और समाज के बारे में आज भी कई स्टार बोलने से हिचकते हैं, वहीं ओम पुरी ने हर अवसर पर वही किया जो सही समझा, पूरी बेबाकी से वही कहा जिसे सही माना। वे अपने विचारों में जितने दृढ़ और पैने थे, दैनिक जीवन में उतने ही मिलनसार और हंसोड़। वे आज हमें छोड़कर चले जरूर गए हैं, लेकिन महान कलाकार के साथ संपूर्ण इंसान के रूप में हमेशा याद किए जाते रहेंगे।
(7 जनवरी 2017 को प्रकाशित)

7 जनवरी 2017 को नवोदय टाइम्स में प्रकाशितhttp://epaper.navodayatimes.in/1062995/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/1/1

इरोम ने रास्ता बदला, इरादा नहीं  




ठीक 15 साल, 9 महीने और 7 दिन पहले मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) के खिलाफ शुरू हुए इरोम चानू शर्मिला के अनशन की अचानक समाप्ति को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। लोग उन पर हंस सकते हैं और पूछ सकते हैं कि मकसद हासिल किए बिना ही अनशन खत्म करना था तो शुरू ही क्यों किया; या फिर तमाम विरोधों, दबावों और जेल यात्राओं के बावजूद इतने दिनों तक जारी क्यों रखा। सियासत की समझ होने का दावा करने वाले कुछ लोग इसे दिल्ली के केजरीवाल मॉडल की नकल बता सकते हैं। सवाल और संदेह करने वाले तो कई होंगे, लेकिन इस प्रश्न का जवाब शर्मिला के फैसले में ही छिपा है।

4 नवंबर 2000। वह तारीख जब 28 साल की इरोम ने भूख हड़ताल शुरू की थी, तब भी उन पर तंज करने वालों या उनके निर्णय को भावुकता भरा कदम बताने वालों की कमी नहीं थी। इसके ठीक दो दिन पहले शांति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम इंफाल से सटे मलोम में एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैंड पर सुरक्षा बलों ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाईं। 10 लोग मारे गए। इस घटना ने इरोम के कोमल और विद्रोही मन पर गहरी छाप छोड़ी और उन्होंने इसके खिलाफ लडऩे का फैसला कर लिया। उस समय भी उन्होंने बंदूक या हिंसा का सहारा नहीं लिया, बल्कि लोकतांत्रिक राह चुनी। सवाल फिर हुए कि मलोम में मरने वालों में से कोई क्या इरोम का रिश्तेदार था; लेकिन अपनी जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और लोगों के प्रति प्रेम से भरे हृदय के लिए इस बेकार से सवाल का कोई मतलब नहीं था।
इरोम का अनशन शुरू करना और फिर इतने लंबे समय के बाद खत्म करना- दोनों घटना जितनी हैरान करने वाली है उतनी ही सुखद भी। दोनों घटनाएं यह बताने के लिए भी पर्याप्त हैं कि पूर्वोत्तर की आयरन लेडी का लोकातांत्रिक मूल्यों और पद्धतियों में कितना अटूट विश्वास है। तभी तो उन्होंने कहा कि वह मुख्यमंत्री बनकर भी अफस्पा के खिलाफ अपनी जंग जारी रखेंगी। यानी इरोम ने अपना रास्ता बदला है, इरादा नहीं। भारतीय समाज किसी भी महान व्यक्तित्व को देवत्व के आसन पर बिठा देता है। उसे सम्मान की सुनहरी बेडिय़ों में जकडऩे की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। इरोम ने अपना अनशन खत्म कर ऐसे प्रयासों को एकबारगी ही धता बता दिया। वह साफ तौर पर यह संदेश देने में सफल रही हैं कि उनकी लड़ाई अफस्पा से है और वह सामान्य नागरिक की हैसियत से भी सियासत के जरिये यह लड़ाई जारी रखेंगी। इरोम को उम्मीद थी कि उनका अनशन अंधी-बहरी व्यवस्था पर प्रहार करेगा और अफस्पा का मुद्दा पूरे देश में चर्चा के केंद्र में होगा। इस मुद्दे पर राजनीतिक सहमति बनने की दिशा प्रशस्त होगी और आखिरकार उनकी मिट्टी को फौजी बूटों की कदमताल से मुक्ति मिलेगी। समय बीतता गया और लोगों ने इरोम को उनके संघर्ष के साथ ही स्वीकार कर लिया, लेकिन वह नहीं हुआ जो इरोम चाहती थीं। अफस्पा को लेकर मरी-बुझी प्रतिक्रियाओं के सिवाय सियासी जमात से कुछ नहीं आया। जीवन रेड्डी समिति की इस अनुशंसा पर भी कुछ नहीं किया गया कि अफस्पा के स्थान पर कोई हल्का कानून लाया जाए। ऐसे में इरोम के पास दो रास्ते थे, या तो वह रोल मॉडल बनकर अस्पताल में अपने कमरे में रहकर परिवर्तन का इंतजार करें या मैदान में आकर बदलाव की लड़ाई नए सिरे से शुरू करें। मकसद की लड़ाई में युवावस्था के सारे अरमानों को दरकिनार कर देने वाली महिला से यही उम्मीद थी कि वह दूसरा रास्ता चुनेंगी और उन्होंने चुना भी।


इरोम ने अपने जीवन को फौलादी इरादों से बख्तरबंद जरूर कर लिया था, लेकिन एक स्त्री मन की कोमलता का सोता हमेशा उनके हृदय से फूटता रहा। यह मन जब बेचैन हो जाता था तो कविताएं कहता था, हल्के क्षणों में रेखाओं के साथ अठखेलियां करता था तो कभी परिवार और प्रेम के बारे में सोचकर व्यथित भी हो जाता था। इरोम की हमेशा से ख्वाहिश सामान्यता की रही। वह चाहती थीं कि मणिपुर के हालात सामान्य हों और वह एक सामान्य स्त्री की तरह घर बसाए, प्रेम करे, परिवार में रहे। अनशन खत्म करने के दौरान इरोम ने यह भी बता दिया कि वह अपने गोवन-ब्रिटिश मंगेतर डेसमंड कूटीन्यो के साथ परिणय सूत्र में बंधेगी। मां सखी देवी खुश हैं कि अब परिवार 'निंगोल चकोबा' (मणिपुरी महिलाओं का सबसे बड़ा त्योहार) मना सकेगा जो उन्होंने इरोम के संघर्ष में साथ देने के प्रतीक के रूप में बंद कर दिया था। लेकिन मणिपुर को इंतजार है इचे (बड़ी बहन) की जीत का, जब मणिपुर फौजी नियंत्रण से मुक्त होकर आमजन की आकांक्षाओं को उड़ान देगा। सभी को यही इंतजार है। शायद! 
(12 अगस्त 2016 को प्रकाशित)

12 अगस्त 2016 को नवोदय टाइम्स में प्रकाशित खबर।
http://epaper.navodayatimes.in/904044/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/11/2

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

हर लीक को तोडऩे वाले शायर थे निदा फाजली

लीक-लीक कायर चलें, लीकहिं चले कपूत।
लीक छोड़ तीनों चलें - शायर सिंह सपूत।।
यह दोहा तो काफी पहले से प्रचलित है, लेकिन लगता है मानो निदा फाजली के लिए ही कहा गया था। निदा साहब सच्चे मायनों में लीक को तोडऩे और अपनी अलग राह बनाने वाले शायर थे। वैसे तो शायरी इन्हें विरासत में मिली थी। इनके पिता भी शायर थे और उनका एक काव्य संग्रह भी आया था, लेकिन निदा का कलाम किसी एक रवायत में बंधा नहीं था। इनकी लेखनी के विशाल कैनवास में गजल से लेकर दोहे और फिल्मी गीत और यहां तक कि अतुकांत कविता भी थी।
यह निदा साहब का ही फन था कि मात्राओं में बंधे शेर और दोहे लिखने वाला कविताएं भी उसी संजीदगी और सामर्थ्य साथ कहता था और सुनने वाले उसी शि
द्दत से शाबाशी दिया करते थे। निदा साहब हर मायने में और हर तरह से लीक तोडऩे वाले थे। उर्दू शायरी को इश्क, माशूका और मय से बाहर निकालकर मां और बच्चे से लेकर चिमटा-चूल्हा तक लाने में निदा फाजली का अलग और बुलंद मुकाम है। फाजली एक बार पाकिस्तान गए थे तो वहां मुशायरे में उन्होंने शेर कहा था-
घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
इस शेर को जितनी दाद मिली थी उतने ही सवाल भी निदा से किए गए। कुछ लोगों ने पूछा कि क्या वे किसी बच्चे को खुदा से बड़ा समझते हैं? निदा ने जवाब दिया-मैं केवल इतना जानता हूं कि मस्जिद इंसान के हाथों बनाते हैं, जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है। निदा साहब का ये बेखौफ और बेलौस अंदाज शुरुआत के दिनों से ही रहा। देश के बंटवारे के बाद उनके पिता ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया लेकिन ये निदा की शख्शियत की बुलंदी और मिट्टी से मुहब्बत ही थी कि उन्होंने हिंदोस्तान में ही रहने का फैसला किया। पिता के इंतकाल के बाद निदा उनकी कब्र पर फातेहा पढऩे तो नहीं गए, लेकिन जो कविता लिखी वह एक बेटे की पिता के प्रति भावनाओं को समझने के लिए काफी है।
फाजली के लिए इंसान और इंसानी जज्बातों की जितनी कीमत थी, उतनी किसी और शय की नहीं। सियासत और मजहब की दीवारों को वह हमेशा इंसानी रिश्तों के लिए गैरजररूरी मानते थे और इसके खिलाफ अपनी भावनाएं शेर के रूप में व्यक्त करते रहे। उनके लिए हिन्दू भी अपने थे, मुसलमान भी, हिंदी भी अपनी थी, उर्दू भी। जो अदब उन्होंने लिखा उसमें सत्ता, सियासत और सरमाएदारी की कोई परवाह नहीं की और जरूरत पडऩे पर मुखालफत से भी नहीं चूके।
सबकी पूजा एक सी, अलग अलग है रीत
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत

पूजा घर में मूर्ति, मीरा के संग श्याम,
जिसकी जितनी चाकरी, उतने उसके दाम

चाहे गीता बांचिए, या पढि़ए कुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान
सभी धर्मों की समान आलोचना के लिए वैसे तो जेहन में सबसे पहला नाम कबीर का आता है, लेकिन आधुनिक समय में कबीर की इस परंपरा का कोई सच्चा वाहक था तो वे निदा फाजली ही थे।
निदा की भाषा न तो खालिस उर्दू थी और न ही शुद्ध हिंदी- उनकी भाषा थी हिंदुस्तानी। आम फहम की भाषा-बोली। निदा की रचनाएं आम लोगों के लिए थीं और इसीलिए उनकी भाषा में थीं। निदा को शायरी की प्रेरणा सूरदास के भजनों से मिली। कहा जाता है कि एक सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजर रहे थे। वहां उन्होंने किसी को सूरदास का गाते सुना। इसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियों का विरह वर्णन था। निदा को लगा कि उनके अंदर दबा सागर बांध तोड़ कर निकल पड़ा है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फरीद आदि को पढ़ा। उनसे प्रेरित होकर सरल-सपाट शब्दों में लिखना सीखा।
निदा फाजली अब शरीर के साथ हमारे बीच नहीं रहे लेकिन अपनी बेजोड़ शायरी और कभी ना भुलाए जा सकने वाले गीतों-दोहों की बदौलत वह हमारे दिलों में रहेंगे। क्योंकि शायर मरता नहीं अपने शब्दों की बदौलत सदा हमारे साथ, हमारे पास होता है।

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

भाजपा और हम-दोनों की मजबूरी थी मेल-मिलाप


बिहार में सीटों के बंटवारे पर दलों और नेताओं के रूठने-मनाने और भेंट-मुलाकात के लंबे दौर के बाद सहमति भले ही बन गई हो और भाजपा प्रमुख अमित शाह एवं हम के अध्यक्ष जीतन राम मांझी समेत सभी एनडीए नेता एकजुटता के दावे करते दिख रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि यह मेल-मिलाप दोनों दलों की मजबूरी ही थी। हम के लिए एनडीए में बने रहना फायदे का सौदा है तो भाजपा को नीतीश की काट के लिए उनके पूर्व सहयोगी से अच्छा कोई मिल नहीं सकता था। मांझी के बहाने भाजपा नीतीश कुमार पर दलित के अपमान का आरोप लगाती रही है। फिर, मांझी के साथ दलित-महादलित वोट और संवेदना तो है ही, अगड़ी जातियों में जनाधार वाली भाजपा के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नाता तोडऩे और अपनी पार्टी के गठन के बाद से ही मांझी एक-एक कर सारे समीकरणों को टटोलते रहे हैं। भाजपा के कुनबे में आने से पहले मांझी किसी मंजे खिलाड़ी की तरह अपने सारे घरों के दुरुस्त करते हुए बीच-बीच में बयानों और मुलाकातों से साथ एवं सहयोग की संभावनाएं तलाशते रहे। पहले अकेले चुनाव लडऩे की बात कहने वाले मांझी कभी पप्पू यादव से मुलाकात कर तो कभी सीएम पद के लिए खुद को प्रत्याशी बताकर अपने पक्ष में हवा बनाते रहे। हालांकि, राज्य में दलित चेहरे के सवाल पर लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के साथ उनकी कड़वाहट भी रही। मांझी जानते हैं कि उनकी पार्टी अपने सारे घोड़े खोल भी दे तो जीतना तो दूर, राज्य की सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी खड़े नहीं कर सकती। ऐसे में उनकी प्रमुख शक्ति महादलित होना ही है और इसी आधार पर वह मैदान के एक छोटे हिस्से पर कब्जा कर सत्ता में हिस्सेदारी कर पाएंगे। भाजपा के साथ सीटों पर पेंच फंसने पर मांझी ने आखिरी दांव चलते हुए राजद प्रमुख लालू प्रसाद को अपने खेमे में करने की भी नाकाम कोशिश कर ली। बीते दिनों लालू के साथ महाचंद्र प्रसाद सिंह की मुलाकात ने कई अटकलों की तो जन्म दिया लेकिन परिणाम, उम्मीद के अनुसार, शून्य ही रहा। भाजपा विरोधी महागठबंधन से सपा के छिटकने के बाद भी इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि लालू, नीतीश को छोड़ मांझी का हाथ थामेंगे।
मांझी को लेकर एनडीए के भीतर करीब सप्ताह भर स्थिति भले ही डंवाडोल होती रही, लेकिन यह भी सबको मालूम था कि भाजपा उन्हें अलग करने का जोखिम नहीं उठाएगी। जदयू के सहयोगी के तौर पर सरकार बनाने वाली भाजपा के लिए यह चुनाव अपने बूते कुछ कर गुजरने का बड़ा मौका है और वह ऐसा कुछ नहीं करेगी जिससे गलत संदेश जाने का अंदेशा हो। मांझी को अलग कर भाजपा पर दलित-महादलित विरोधी कहलाने या उनके वोट खिसकने का रिस्क नहीं ले सकती। सीएम की कुर्सी छोडऩे के बाद से बात-बात पर दलित नेता होने की बात कहने वाले मांझी अलग होने के बाद भाजपा के लिए चुनाव में परेशानी खड़ी कर सकते थे। दूसरा, सीएम आवास खाली करने से लेकर आम-लीची तक पर नीतीश के साथ रार लेने वाले मांझी को नीतीश की काट के रूप में देखा जा रहा है और भाजपा चाहती है कि महादलितों की इस टीस का लाभ वह वोट के रूप में हासिल कर सके। मांझी राज्य में महादलित या निचले पायदान की मुसहर जाति से हैं। राज्य की 16 प्रतिशत दलित-महादलित जातियों में इनकी आबादी करीब 15 फीसदी है और किसी भी राजनीतिक मोर्चे की संभावनाएं उभारने या गिराने का दमखम रखती हैं। अगर दलित जातियां एक साथ वोट करने का मन बना लेती हैं तो ये बिहार में मजबूत वोट बैंक में तब्दील हो जाती हैं। मांझी राज्य में महादलित वोटों को एकजुट करने की यही क्षमता रखते हैं। इस बार कड़ी टक्कर वाले दो ध्रुवीय चुनावों में जदयू-राजद-कांग्रेस महागठबंधन को यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटों में बड़ी हिस्सेदारी मिलने की उम्मीद है। वहीं, भाजपा की अगुआई वाले एनडीए को ऊंची जातियों (ब्राह्मण-राजपूत), वैश्य-व्यापारी के वोट बड़े पैमाने पर मिलने भरोसा है। मांझी के नाम पर अगर पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित-महादलित वोट भाजपा को मिलते हैं तो भाजपा के लिए सत्ता का सपना देखना आसान होगा।

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

हमराही अब हमलावर

बिहार विधानसभा चुनाव का एलान होने के साथ ही राज्य में चुनावी पारा चढ़ गया है। बिसात बिछ गई है लेकिन ‘एड फ्रैंड’ और ‘अनफ्रैंड’ (सोशल मीडिया में दोस्त बनाने या दोस्ती तोडऩे के लिए इस्तेमाल शब्द) के दौर ने तस्वीर पूरी तरह बदल दी है। दलों
राजद अध्यक्ष लालू यादव के कार्यकाल में तीसरे-चौथे स्थान पर रहने वाली भाजपा इस बार बड़ी भूमिका में नजर आ रही है। पार्टी ने लोकसभा चुनाव के सहयोगियों-रामविलास पासवान की लोजपा और रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा पर भरोसा तो किया ही है, विरोधी दलों के बागियों के रूप में नए दोस्त भी तलाशे हैं। कभी लालू यादव का दाहिना हाथ कहे जाने वाले पप्पू यादव ने अपनी अलग पार्टी बना ली है और उनका साथ भाजपा को है। नीतीश कुमार के विश्वासपात्र पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी राजग के साथ हैं। ऐसे में राजग को अगड़ी जातियों के अलावा यादवों के 14.4 प्रतिशत और दलित-महादलितों के 10-4.5 प्रतिशत वोटबैंक में सेंध की उम्मीद है। पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे और अमित शाह की संगठन क्षमता को भुनाने में पीछे नहीं रहने वाली। पीएम जिस रफ्तार से बिहार में रैलियां कर रहे हैं और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में अपने शब्दवाणों से विरोधियों को पस्त कर रहे हैं, उससे पिछले चुनाव में 91 सीटें हासिल करने वाली भाजपा को सीटों की संख्या में इजाफे का पूरा भरोसा है। हालांकि, दिल्ली चुनाव के बाद यह मोदी-शाह की जोड़ी का सबसे कठिन टैस्ट भी होने वाला है।
दो चुनावों में भाजपा के साथ लडऩे एवं सरकार बनाकर सीएम बनने वाले नीतीश कुमार की जदयू के लिए इम्तिहान सबसे कठिन है। यह नीतीश के शासन (सुशासन?) का भी एक इम्तिहान तो है ही, धुर विरोधी लालू से गलबहियां डालने के पैंतरे की परीक्षा भी। पिछले चुनाव में लगभग आधी सीटों (115) पर कब्जा जमाने वाली जदयू के लिए पिछले परफॉर्मैंस को दोहराना आसान नहीं होगा। भाजपा के खिलाफ दूसरे दलों के महागठबंधन की हवा भी सपा प्रमुख मुलायम ङ्क्षसह यादव निकाल चुके हैं। कुर्मी, कोइरी मतदाताओं के 5 प्रतिशत वोट के साथ उन्हें दलितों और महादलितों पर भरोसा है। पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की जीत के पीछे महिलाओं और निष्पक्ष मतदाताओं, युवाओं के समर्थन बड़ा फैक्टर था। नीतीश इस चुनाव में भी इस वोटबैंक को हथियाने का पूरा प्रयास करेंगे लेकिन बिहार में शराब की दुकानों की बढ़ती संख्या महिलाओं को जदयू से दूर कर सकती है। गठबंधन को बड़ी उम्मीद माई (एम-वाई) समीकरण से है। यही वजह है कि कभी एक-दूसरे को फूटी आंखों न सुहाने वाले लालू-नीतीश बड़े-छोटे भाई बने घूम रहे हैं। हालांकि, जीतन राम मांझी दलित वोटों का बड़ा हिस्सा काटकर नीतीश की आशाओं को धराशायी कर सकते हैं। जीत-हार की तस्वीर तो 8 नवम्बर को ही साफ होगी लेकिन यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि लालू की पार्टी राजद फायदे में रहने वाली है। पिछले चुनाव में केवल 22 सीटों पर सिमट आई कभी दो दशकों तक शासन करने वाली पार्टी के पास खोने को कुछ खास है भी नहीं। और यादवों का जनाधार तो है ही। 
नवोदय टाइम्स के 10 सितम्बर के अंक में प्रकाशित।
के लिए इस बार की लड़ाई पिछली बार से बिल्कुल अलग होगी। पहले जो सहयोगी थे, अब प्रतियोगी बने ताल ठोक रहे हैं। हमराही अब हमलावर हैं। चुनावी गीतों ने राज्य में हर संगीत को फीका कर रखा है तो पोस्टर वार का नया रूप भी यहां देखने को मिल रहा है। गांवों की चौपालों से लेकर शहर के चौराहों तक सिर्फ चुनावी माहौल दिखाई दे रहा है। आने वाले दिनों में यह लड़ाई और दिलचस्प होने वाली है।

बयानबाजी और बगावत
दोस्ती-दुश्मनी का यह खेल आखिरी नहीं है। भाजपा विरोधी महागठबंधन ने सीटों का एलान क्या किया, आपसी फूट उभरकर सामने आ गई। सपा प्रमुख ने गठबंधन की गांठ खोलते हुए सभी सीटों पर अलग से चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी। पहली बार मुलायम ने नीतीश के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल दिया हैै। इधर लालू यादव पर परिवारवाद का आरोप लगाते हुए विरोधी हमला कर रहे हैं तो जवाब देने खुद लालू के बेटे तेजस्वी को सामने आना पड़ा। महागठबंधन में अब नीतीश के खिलाफ बयान देकर लालू के सांसद तस्लीमुद्दीन ने भी मोर्चा खोल दिया है। अंदरूनी कलह से राजग भी अछूता नहीं। घटक के दो प्रमुख सहयोगी मांझी और पासवान दलित नेता के मुद्दे पर आमने-सामने हैं। इनकी सीटों की मांग भी भाजपा को परेशान कर सकती है।

शनिवार, 18 जुलाई 2015

सियासत की तस्वीर बन चमक खो रही मेट्रो


आरामदायक सफर और चाक-चौबंद व्यवस्था के लिए मशहूर दिल्ली मेट्रो आजकल अपनी अव्यवस्थाओं के चलते सुर्खियों में ज्यादा आ रही है। सटीक टाइमिंग, साफ-सुथरे स्टेशन व कोच तथा यात्रियों की सहयता के लिए तत्परता अब इंतजार, ऊब और अनिश्चितता में बदलती जा रही है।

दिल्ली के बाद मेट्रो का एनसीआर के शहरों में विस्तार तो हुआ है, लेकिन सुविधाओं में कमी आई है। सबसे खराब हालत ब्लू लाइन की है। आए दिन इस रूट पर किसी न किसी तकनीकी खराबी के चलते मेट्रो पर ब्रेक लगती रही है। 5-10 मिनट की देर तो आम बात हो गई है। एक-दो मौके तो ऐसे आए कि लोगों को आपातकालीन द्वार खोलकर बाहर आना पड़ा। पहले जहां मेट्रो परिसर में गंदगी ढंूढे नहीं मिलती थी, अब कोचों में भी पानी की खाली बोतलें और बिस्कुट-चिप्स के रैपर दिख जाते हैं। मेट्रो यात्रियों की आम धारण है कि श्रीधरन के कार्यकाल तक सबकुछ फिट एंड फाइन था। उनके हटते ही दिक्कतें शुरू हो गईं।

हालांकि, मेट्रो के मैलेपन की कुछ और वजहें हैं। दिल्ली की सरकार हो या पड़ोसी राज्य हरियाणा और उत्तर प्रदेश की, अपने विकास कार्यों की चमचमाती तस्वीर पेश करने के लिए नेता पहली घोषणा मेट्रो को लेकर करते रहे हैं। हालत यह है कि मेट्रो विस्तार का तीसरा प्लान पूरा भी नहीं हुआ है और चौथा तैयार हो चुका है। जाहिर है कि जल्दबाजी मेट्रो को नहीं सियासतदानों को है। मेट्रो रूट की घोषणा से प्रापर्टी की कीमतों में उछाल का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से किसे फायदा होता है-बताने की बात नहीं।

मेट्रो के बदरंग होते जाने के लिए यात्री भी कम जिम्मेदार नहीं है। मेट्रो में खाने-पीने, गंदगी फैलाने और फोटो खींचने पर रोक है, लेकिन ऐसा करते अक्सर लोगों को देखा जा सकता है। कार्रवाई का डर न हो तो नियम नहीं मानेंगे- इस मानसिकता से दिल्लीवालों को मुक्ति पानी होगी। मेट्रो हम सबके लिए है और यह साफ-सुथरी रहे इसकी जिम्मेदारी भी सबकी है।


नवोदय टाइम्स के 18 जुलाई के अंक में प्रकाशित।

‘शत्रु राग’ में खो न जाएं भाजपा के सुर


मुख्यमंत्री पद और सीटों की खींचतान के चलते बिहार में भाजपा का ‘मिशन 185’ मुश्किल में पड़ सकता है। पटना में वीरवार को परिवर्तन रथ को झंडी दिखाने के लिए आयोजित कार्यक्रम में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ घटक दलों के प्रमुखों को भी मंच पर जगह दी गई थी। संदेश था राजग की एकजुटता का, लेकिन इस संदेश पर संदेह पैदा कर रही थी बिहार के कुछ नेताओं खासकर शत्रुघ्न सिन्हा की अनुपस्थिति।

प्रधानमंत्री के दौरे से पहले बिहार में यह भाजपा का सबसे बड़ा कार्यक्रम था। शाह ने बड़े पैमान पर चुनाव प्रचार अभियान की औपचारिक शुरुआत की, लेकिन बारिश में जमे समर्थकों की निगाहें ‘बिहारी बाबू’ शत्रुघ्न सिन्हा को ढंूढती रही। अपने बागी तेवरों को लेकर सिन्हा आए दिन भाजपा नेतृत्व के लिए मुसीबत खड़ी करते रहे हैं। सिन्हा ने गांधी मैदान न आने का कारण साफ नहीं बताया, बल्कि अपने अंदाज में एक शेर का अंश जरूर कह दिया-‘वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमां।’ अगर इस शेर की अगली पंक्ति-‘हम अभी से क्या बताएं, क्या हमारे दिल में है’- को याद करें तो शत्रु भइया की मंशा समझी जा सकती है।
यह पहली बार नहीं है कि शत्रुघ्न सिन्हा ने पार्टी नेतृत्व के माथे पर बल ला दिए हों। हाल ही में लालू के जन्मदिन पर उन्हें शुभकामना देने उनके आवास पहुंच शत्रुघ्न ने सियासत में कई सवाल खड़े कर दिए थे। विधानपरिषद चुनाव में भाजपा की जीत के जश्न को वह न इतराने की नसीहत देकर फीका कर चुके हैं। परिवर्तन रथों पर अपनी तस्वीर न होने के लिए भी वह साफ शब्दों में नाराजगी जता चुके हैं।

भाजपा नेतृत्व ने साफ कर दिया है कि बिहार में सीएम पद के नेता की घोषणा चुनाव से पहले नहीं की जाएगी। शायद शीर्ष नेतृत्व भी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से वाकिफ है और चुनाव से पहले किसी दरार को उभरने से रोकने के लिए ही ऐसा फैसला किया गया है। दिल्ली में चुनाव से ऐन पहले किरण बेदी को सीएम प्रत्याशी घोषित करने का परिणाम भाजपा पहले ही देख चुकी है। शत्रुघ्न सिन्हा सीएम पद की घोषणा की मांग कई बार कर चुके हैं। आमतौर पर पटना आते-जाते रहने वाले सिन्हा काफी दिनों से वहां जमे हैं। वह लगातार स्थानीय नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं। पिछले दिनों वह राज्यसभा सांसद आरके सिन्हा से मिलने उनके आवास पर गए। माना जा रहा है कि वह कायस्थ नेताओं को एकजुट करने की मुहिम में जुटे हैं। अगर सिन्हा अपने को कायस्थ नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने में सफल रहे तो उनका पलड़ा भारी हो सकता है। बिहार में इस बार जब वोटों की लड़ाई दशमलव प्रतिशत तक पहुंच गई है तब कायस्थों के 1.5 प्रतिशत मत के साथ सिन्हा अपनी मंशा को लेकर मैदान में उतर सकते हैं। 
प्रदेश में भाजपा के दूसरे बड़े नेता सीपी ठाकुर भी ऐसी मांग कर चुके हैं। सिन्हा से एक कदम आगे बढ़ते हुए ठाकुर मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जता चुके हैं। पार्टी में अलग-अलग नेताओं के लिए भी दबे छिपे आवाजें उठती रही हैं। 
नवोदय टाइम्स के 18 जुलाई के अंक में प्रकाशित खबर।